Wednesday, August 25, 2010

1992 और उसके बाद

आज फिर लेखनी मेरे हाथ में है.. या यूँ कहूं कि मैं उसकी शरण में... अतीत के किसी पन्ने को पलटने के लिए... या संभवत: दोनों को ही एक दूसरे की आवश्यकता है.. माज़ी के धुन्दलके को शफ्फाफ़ कर मंज़र-ए-आम पर पुरानी यादें rekindle करने के लिए... और यह देखिये एक खिड़की खुली...इस से आती यादों की हवाओं ने मेरे वजूद को सराबोर कर दिया है....

जुलाई 1992 ईस्वी का अंतिम सप्ताह...

बस से उतर कर, बुर्क़े को समेटती तेज़ी से अपने गुरु श्री विशिष्ट खरे (तत्कालीन प्रधानाचार्य, श्रीमती सुखदेवी इंटरमीडियेट कालेज, हसनपुर) के घर की ओर बढ़ी जा रही थी..रात को ज़बरदस्त आंधी के साथ बारिश होने से हवा में खुन्की भरी तेज़ी थी. सड़क के गड्ढों में पानी जमा होने के कारण तेज़ चलने में दिक्क़त महसूस हो रही थी. आसमान पर गहरे सुरमई बादल घुमड़-घुमड़ कर गर्जना कर रहे थे. बारिश कभी भी अपेक्षित थी.. बुर्क़े को फिर कसा.. रफ़्तार लगभग दौड़ने की हद तक पहुँच गयी थी कि पीछे से एक वैन आयी जिसने गड्ढों की छाती पर मूंग दलना चाहा, प्रतिकारस्वरूप गड्ढों ने न्यूटन के तृतीय नियम को सिद्ध करने हेतु उन में भरा पानी जोर से उछाला जो वैन(हवा की पुत्री ठहरी=मारुती ओमनी ).. तक तो नहीं पहुंचा नतीजतन तू न सही तो ग़ैर सही, पानी मुझ पर आ पड़ा. मैं वैन-चालक को (गड्ढों को नहीं) दिल ही दिल खूब कोसती हुई आगे बढ़ी.गुरूजी के घर में क़दम रखते ही मुझे माहौल कुछ बदला हुआ महसूस हुआ.. मेरे सहपाठी व सहपाठनियां नए या नए जैसे वस्त्रों में सुशोभित थे. शबाना,फरहाना, रुखसाना व मुझ समेत चार लड़कियां थीं जबकि लड़कों में निज़ामुद्दीन, शकील अहमद, जगदीश भैय्या, मुनेंदर (तत्सम रूप मुनीन्द्र है,जिसको हम सभी प्यार से मुनेंदर बल्कि बंदर बुलाते थे), उमेश, मशकूर भाई,हनीफ अहमद थे. ज्ञात हुआ कि आज सर के यहाँ गृह-प्रवेश है. मैं कल नहीं आ सकी थी. सर ने ट्यूशन पढने वालों सभी बच्चों को आमंत्रित किया था..थोड़ा सा अफ़सोस हुआ कपड़ों को लेकर.. आज पढ़ाई का नहीं एन्जोयेमेंट का दिन था यानी कि खाने-पीने का.... देसी घी के लड्डुओं की खुशबू अंदर किचन से आ रही थी... साथ ही साथ पूजा के मन्त्रों के स्वरों ने माहौल पवित्र व आध्यात्मिक कर दिया था. उपस्थित छात्र समूह ने सामूहिक रूप से मेरे कीचड़ से लथ-पथ रूप पर ठहाका लगाया.. हनीफ ने कमेन्ट पास किया,दरोगाजी तो आज कीचड़ में गोली-बारी करके आ रहे हैं (मेरे अनुशासित व्यवहार और सख्त रवैय्ये के कारण मुझे उक्त लक़ब से नवाज़ा गया था,व मेरा खवाब भी पुलिस को ज्वाइन करने का था उस वक़्त मगर,कव्वों के काएं-काएं करने से..... खैर... किसको थी पता किसको था खबर कि मैं दरोगा तो नहीं. दरोगाजी से विवाहित होकर उनके घर की बीवी बन जाऊंगी) . पूर्व इसके मैं हनीफ पर जवाबी हमला करती आंटीजी चाय के कपों से भरी ट्रे ले आयीं. बात टल गयी फिलहाल. बोलीं,'' छुटकी भीतर चलकर कीचड़ धोले.. वो भी बुला रहें हैं ." शायद उन्होंने मुझे ऊपर छत से आते हुए देख लिया था 'वो' से मतलब हमारे गुरूजी थे.. गुरुआइन भी सारी घर की बीवियों की भांति ही 'ये' 'वो' से काम चलाती थी. प्रथमपुरुष का संबोधन तो घर की बीवियों के इतर ही प्रयोग होता है. मैं पढने वालों बच्चों में अपेक्षाकृत आयु में छोटी थी. जिस से सर मुझे छुटकी बुलाते थे. इस वजह और पढ़ने में गुड सेकंड( उस वक़्त आजकल की तरह फर्स्ट डिवीज़न आना आम नहीं था. सो 50 % से अधिक अंक आने पर द्वितीय श्रेणी से अलग करने के लिए गुड सेकंड डिवीज़न का प्रयोग होता था) होने से सर मुझको बहुत लाड़ करते थे. एक वजह और हो सकती थी वह यह कि उनके दोनों पुत्र बाहर नौकरी करते थे व सर और आंटीजी दोनों ही यहाँ रहते थे. मेरे साथ रुखसाना भी उठकर आ गयी वह हैन्डपम्प चलाते-चलाते बोली,''आशकारा! सारे कपड़े भीग गए हैं, मेरे घर चलकर दूसरे कपड़े पहन ले." हम दोनों का साइज़ एक ही था.सर से इजाज़त लेकर दस-पन्द्रह मिनट में कपड़े तब्दील कर हम वापस पार्टी में आ गए. खाना शुरू हो चुका था. मुनेंदर और फरहाना में कौन ज्यादा खाये को लेकर शर्त लगी हुई थी. बाकी लोग उनकी पूरियों की गिनती कर रहे थे. अब तक स्कोर दस-दस की बराबरी पर था. मैं अपनी थाली लगा चुकी थी. फरहाना ने उसमें से भी पूरियां उठा कर खानी शुरू कर दी थीं. मेरी थाली खाली देखकर आंटी ने पूछा, ''अरे छुटकी की पूरियां कौन खा गया?'' फरहाना ने धीमे से कहा,'' मुनेंदर,''
---''बन्दर,'' आंटी ऊंचा सुनती थीं. बन्दर के आने की आशंका से घबराकर ऊपर देखते हुए बोलीं ,''कहाँ है बन्दर?'' मुनेंदर ने जवाबी हमला किया,''आंटीजी, साथ में बंदरिया भी थी, '' इशारा साफ़ फरहाना की तरफ था,''मोटी बंदरिया.'' हम सब पर हंसी का एक दौरा सा पड़ गया. जिसका फरहाना पर कुछ असर नहीं दिखाई दिया क्यूंकि वोह बड़े आराम से खीर के बर्तन पर हाथ साफ़ कर रही थी.
आखिरकार मुनेंदर ने हार कर हाथ खड़े कर दिए. फरहाना विजयी होकर मुस्कुरा रही थी. लेकिन यह क्या फरहाना को उठकर खड़े होने में सहारे की ज़रुरत पड़ गयी थी.
यादगार के किये फोटो-सेशन हुआ. सर बीच में कुर्सी डाल कर बैठ गए. निर्देशानुसार सभी छात्र पीछे खड़े हो गए. मेरे मन में हिचक थी लड़कों के साथ फोटो खिचवाने को लेकर, जिसे भांपकर मशकूर भाई (इनके सीधे स्वभावके कारण हम इनको आपा बुलाते थे) बोले,''घबराओ मत, मेरे साथ खड़ी हो जाओ.'' सभी हंस दिए मगर, मुझे बड़ी तसल्ली मिली थी.

नवम्बर बीस, 1992 ईस्वी.
सायं ठीक चार बजे हम लोग निर्धारित समय पर सर के घर पहुँच गए. सर ने आज इंग्लिश ग्रामर में एक्टिव-पेसिव वॉईस का अभ्यास करने को बोल रखा था.मैं बड़ी उत्साहित थी क्यूंकि मेरे लिए यह एक आसान शो'बा था. परन्तु मुनेंदर और जगदीश भैय्या जो सर के घर से मात्र पचास क़दम की दूरी पर रहते थे, अभी तक नहीं आये थे. कन्फूसियाँ होने लगीं कि क्या बात है आखिर.
हनीफ बोला,''मैं जाकर देखता हूँ, अभी तो सर भी नहीं पहुंचे हैं.'' वह उठकर बाहर चला गया.

थोड़ी देर बाद सर आकर अपनी कुर्सी पर जम गए. उन्होंने आज आफ़-व्हाईटकुरता-पायजामा ज़ेब-तन कर रखा था. साथ टोपी भी लगा रखी थी. मैं मुसाहिबीमें बोली,''सर ऐसा लग रहा है कि जैसे आप जुमे की नमाज़ पढ़ कर आ रहें हैं.''
--''अरी छुटकी!,'' सर ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया,''क्या कहती हो,नमाज़ हो या पूजा. सब उस ईश्वर की होती है और वैसे भी मुझे मेरे साथी तो मौलाना विशिष्ट कहकर बुलाते ही हैं वह यूं कि मैं मुसलमान लगता हूँ.''

मेरा अगला प्रश्न था,''सर लगता हूँ से क्या मतलब? क्या हिन्दू और मुस्लिम के नैन-नक्श में कुछ अंतर होता है?''
----''नहीं छुटकी ऐसा कुछ नहीं है, सिर्फ सोच का फर्क है.." सर कुछ अपसेट हो गए व माहौल बोझिल सा हो गया. मैं समझ नहीं पायी थी. सर उठकर अंदर चले गए थे.
तभी घबराए हुए हनीफ ने प्रवेश किया, बोला,'' जगदीश भैय्या की तबियत बहुत ज्यादा ख़राब है, बेहोश हैं वो और मुनेंदर भी वहां नहीं है.''
हम सभी दौड़ते हुए उनके कमरे पर पहुंचे. पूरा कमरा उल्टियों से व उसकी दुर्गन्ध से भरा पड़ा था. जगदीश भैय्या लगभग अर्ध्मूर्च्छित अवस्था में फर्श पर पड़े हुए थे. पूछने पर वो बुदबुदाते हुए बोले,' रात से उल्टी-दस्त हो रहे हैं." मुनेंदर को बताया कि वह अपने गाँव गया हुआ है,उसके पिताजी की तबियत खराब होने की खबर आयी थी.

शकील अहमद दौड़कर मोटर साइकल ले आया, हनीफ और शकील अहमद के बीच जगदीश भैय्या को बिठा कर डाक्टर के यहाँ रवाना किया गया. हमने वापस आकर सर को इन्फोर्म किया. फिर रिक्शे से हम डा. विनोद के यहाँ पहुंचे. हालत बहुत
खराब थी. डा. साहब बिना घर वालों के बुलाये केस हाथ में लेने को तैयार नहीं थे. खबर इतने समय में कैसे जाती. उन दिनों फ़ोन सहज सुलभ नहीं थे.उनका गाँव काफी दूर था. शकील अहमद ने सयानापन दिखाया,'' आप खर्चे की फ़िक्र मत करें, इलाज शुरू कर दें.''
डा. को भी गुस्सा आना शरू हो गया,''खबर ज़ुरूरी है, कुछ हो गया तो, तुम लोग भी फंस जाओगे.''
अब शकील अहमद को गुस्सा आ गया,'' आपको फंसने-फंसाने की पड़ी है. इसकी जान बचाओ. बाद में जो होगा देखा जाएगा.''
हम सभी लड़कियां दुआ मांग रहीं थीं या पाक-परवरदिगार जगदीश भैय्या को बचा लो. इतने में मुनेंदर सर के साथ वहां आ गया. सर से बातकर डाक्टर साहब मुतम'इन हो गए..

जगदीश भैय्या को आज अस्पताल में चौथा दिन था. हालत काफी हद तक सुधर चुकी थी. उनके घर वाले भी आ गए थे. रोज़ हमारी भी कालिज के बाद एक बार हाजिरी ज़रूर लगती थी. शकील अहमद और हनीफ तो रात को भी वहीं रुकते थे

27 नवम्बर 1992
पूरे एक सप्ताह बाद जगदीश भैय्या हस्पताल से डिस्चार्ज हुए थे. बहुत ज़्यादा कमज़ोर हो जाने के कारण उनके घरवाले उनको गाँव (कनपुरा) ले जा रहे थे. विदा करते वक़्त माहौल सेंटीमेंटल हो गया था. जब वह शकील अहमद से गले लगे तो शकील अहमद की आँखों से आंसूं साफ़ नज़र आ रहे थे हालांकि उनको छुपाने का उसने भरसक प्रयत्न किया था.

उधर मुनेन्द्र से पता चला की पिताजी की बीमारी तो बहाना मात्र थी, घर वाले उसकी सगाई कर रहे थे जबकि वह पढ़ना चाहता था.. उसको जाकर मामला पता चला तो वह भी वहां से बहाना कर भाग लिया.. हम सब ने उसकी खूब खिंचाई की.

6 दिसम्बर 1992
ज्योग्राफी के प्रेक्टिकल का पीरियड था. सर ने आकर सूचित किया,'' कालिज की छुट्टी हो गयी है और आगामी तीन-चार दिन तक कालिज और ट्यूशन दोनों की छुट्टी रहेगी.'' सर फ़ौरन क्लास से निकल गए.

अचानक हुई छुट्टी का कारण किसी की समझ नहीं आ रहा था. तभी चपरासी ने आकर बताया कि ट्यूशन पढ़नेवालों को सर आफिस में बुला रहे हैं. ऑफिस में पहुँचते ही सर मुझसे मुखातिब हुए,'' आशकारा! तुम आज अकेली घर मत जाना!''
--''हम तीन भाई-बहन साथ घर जाते है, हुआ क्या है? कुछ तो बताइये सर?'' मैंने घबराते हुए उत्सुक स्वर में पूछा.
--''हिन्दू-मुस्लिम झगड़ा शुरू हो गया है.'' सर के स्वर में तल्खी मिश्रित निराशा थी,''घबराओ मत जल्दी से घर पहुँचने की कोशिश करो.''

अपने दोस्तों से विदा लेकर हम तीनों बहन-भाई बस-अड्डे पहुंचे. बड़ी भीड़ नजर आ रही थी.जैसे ही हम तीनों बस की ओर बढ़े, पहुँचती हुई बस से उतरते हुए अब्बू दिखाई दिए, हमें देखकर हमारी तरफ लपके. बस में बैठने के बाद अब्बू ने ड्राईवर से फ़ौरन चलने की दरख्वास्त की थी. बस स्टार्ट होकर चलना शुरू हो गयी थी. पीछे से शोर आता सुनाई दिया, देखा तो भीड़-नुमा जुलूस था जो 'राम जन्म-भूमि' के नारे लगाता हुआ बस की ओर लपक रहा था. बस तब तक स्पीड पकड़ चुकी थी. हसनपुर से हमारे गाँव पहुँचने में पंद्रह -बीस मिनट लगते थे लेकिन उस दिन सिर्फ दस मिनट में हम गाँव के अड्डे पर पहुँच चुके थे. रास्ते में दो-तीन जगह बस पर पथराव हुआ था लेकिन ड्राईवर की कुशलता से कुछ नहीं हो पाया था केवल बस का पिछला शीशा टूट गया था. हाथ-पैर डर और आंतक की वजह से शल हो चुके थे. घर तक पहुँचते-पहुँचते आधा घंटा लग गया. रास्ते में जगह-जगह लोग रेडियो से बाबरी मस्जिद के गिराए जाने की ख़बरों को सुन रहे थे..

अम्मी को दरवाज़े पर फिक्रमंद खड़ा पाया. हमारी डर और थकान से हालत ख़राब थी. मैं चुपचाप पलंग पर लेट गयी फिर नींद आ गयी.

मैं जब सोकर उठी तो लगभग शाम हो चुकी थी. दरयाफ्त पर मालूम हुआ कि हालात बहुत ख़राब हो चले है. हसनपुर में कर्फ्यू लग चुका था. पता चला कि कुछ बदमाश लोगों ने देवेन्द्र नागपाल की हथियारों की दूकान लूट ली है.. याद नहीं पड़ रहा कि उसकी हत्या हुई था या वह घायल हुआ था सिर्फ. उसके बाद हालात बद से बदतर होते गए. पीऐसी व पुलिस द्वारा जवान लड़कों को घरों से खींच कर ले जाया जाने लगा. मोहल्ला लाल-बाग़ में हालात बहुत ज़्यादा ख़राब हुए थे.

अब जो मैं लिखने जा रही हूँ इसका मुझे तीन महीने बाद पता चला था जब हम सभी पढ़नेवाले बच्चों की मुलाक़ात हुई... मेरी तीनों दोस्त जब कालिज से घर के लिए निकलीं तो रास्ते में उन्हें बड़ी मुश्किलें पेश आयीं क्यूंकि हसनपुर में तब तक आग भड़क चुकी थी. हर गली में पथराव हो रहा था. तीनों हांपती-कांपती घरों-घरों से निकलती हुई रुखसाना के घर पहुँच पायी थीं जो नागपाल हथियार-फ़रोश की दूकान से नज़दीक ही था. उन्होंने उसकी दूकान लुटने वाली आवाजें घर के अंदर से सुनी थीं.

उधर निज़ामुद्दीन और मुनेंदर कमरे पर पहुँच कर डर रहे थे.. सर से मशवरा करने पर सर ने उनको गाँव चले जाने की सलाह दी. घर कैसे जाए. बसों में आग लगाई जा रही थी. माहौल में हर तरफ़ वहशत दहशत बरपा थी. यहाँ पर भी सिर पर मौत आ खड़ी हुई थी. जान को खतरे में डालकर जाने का फैसला ले लिया उन्होंने. अगले दिन कर्फ्यू में दो घंटे की ढील दी गयी. दोनों किसी तरह निकल कर उझारी जाने वाली बस में सवार हो गए. निजामुद्दीन उझारी का रहने वाला था जो कि मुस्लिम-बहुल आबादी थी लेकिन मुनेंदर का गाँव उझारी के बाद पड़ता था. इसके अलावा उसको पैदल ही मुसलमानों के कई गाँवों से गुज़रकर जाना पड़ता था. उझारी पहुँच कर निज़ामुद्दीन ने उसको दिलासा दिया,'' तू घबरा मत. मैं तुझको तेरे गाँव की सीमा तक छोड़ कर ही आऊँगा. मेरे होते तुझे कोई खतरा नहीं होगा.

उधर हमारे गाँव सिहाली-जागीर ने धर्म-निरपेक्षता की फरामोश न कर सकने वाली मिसाल कायम कर दी थी. हमारा गाँव 95 फ़ीसदी मुसलमानों(पठानों) से आबाद है बाकी 5 % में हिन्दुओं की विभिन्न जातियां रहती हैं. मगर हमारे यहाँ कोई झगड़ा नहीं था. हिन्दुओं के रिश्ते-नातों के यहाँ से फ़ोन 'लाला' के घर आ रहे थे कि गाँव से भाग आओ. उन्होंने पलटकर जवाब दे दिया कि अगर आप को कोई कुछ कहता हो तो आप सिहाली आ सकते हो. हमारी चौपाल पर रोज़ कोई पचास-साठ आस-पास गाँव के लोग ठहरे हुए होते थे. ये ज़्यादातर डेली-बेसिस के सेल्ज्मेन थे जो कर्फ्यू की वजह से हसनपुर को क्रॉस नहीं कर पा रहे थे. उन शरण लिए लोगों के लिए हर घर से हस्बे-हैसियत खाना भेजा जाता था. उनमें से जो किसी भी हालत में अपने गंतव्य को जाना चाहते थे. वो खेतों के रास्ते से अपने घरों की ओर निकल लिए जो कभी अपने घरों को नहीं पहुंचे... बहुत बाद में एक गाँव(नाम रहने दें) के जंगलों के कुओं से दस दस सर-विहीन शव बरामद हुए थे...

समय समय के साथ बीत गया क्यूंकि उसको बीतना ही होता है. बाबरी मस्जिद जिसका नाम हमने अबसे पहले सुना भी नहीं था, खुद भी गयी और अपने साथ न जाने कितने मासूमों को ले गयी. क्यूंकि यह तो एक मामूली गाँव की मामूली लड़की के अनुभव है... पूरे देश का हाल देश ही जानता होगा क्यूंकि वह तो सबका होता है. देश की ज़मीन तो बिना जाति-मज़हब का भेद किये सबको उपकृत करती है. हम सब इसी देश इसी ज़मीन की संतान हैं, पैदावार हैं, जिनकी अकाल मृत्यू से उसका हृदय निश्चित रूप से रोता होगा,पर वह कुछ नहीं कर पाता, मजबूर है उन लोगों के हाथों जो उसको चला रहें है. जो अपने निज-स्वार्थों के लिए खून की होली खेलते आये हैं.. हम नॉन-पोलिटिकल लोग कब समझेंगे कि इन लीडरों का कोई धर्म नहीं होता जो सिर्फ अपने वेस्टेड इंटरेस्टस के लिए हम लोगों को लड़ाते हैं.

मार्च 1993
आज फिर में उसी रास्ते पर अपना बुर्क़ा संभालती हुई बढ़ी चली जा रही हूँ, दिल दहशत में है, ज़हन में बहुत सारे सवाल है. जिनके जवाब मैं जानती हूँ किसी के पास नहीं है.. हम सारे स्टुडेंट्स आज भी साथ पढ़ रहें है.. लेकिन हमारी निश्छल हंसी-ठिठोली न जाने कहाँ गुम हो चुकी है. किसी से कुछ कहने से पहले आशंका हो जाती है कि कहीं बुरा न मान जाए कि उसके जाति-मज़हब पर कंमेंट क्यूँ कर रहे हो..

दू र कहीं पान के खोखे पर गाना सुनाई पड़ा ,'' कोई जन्नत की वो हूर नहीं मेरे कालिज की एक लड़की है...'' मेरी तन्द्रा टूट गयी.. सर का घर आ गया था.

बाकी आइन्दा...........


********** Trouble Shooting
माज़ी= Past
शफ्फाफ़= Clear
मंज़र-ए-आम= to put forward
rekindle = दुबारा जलाना means त्ताज़ा करना
वजूद= existence
सराबोर= shower
खुन्की= cold
गर्जना= roar
प्रतिकारस्वरूप= in retaliation
न्यूटन का तृतीय नियम= To every action there is always an equal and opposite reaction
सहपाठी= class mate
सुशोभित= decorated
तत्सम= pure
लक़ब= title
शो'बा= department
ज़ेब-तन= dressesd
मुसाहिबी= दरबारी लफ्ज़ है. साहब मतलब higher office के subordinate staff को मुसाहिब कहते हैं. जिनका काम साहब को खुश रखना और उनकी हाँ में हाँ मिलाना होता था.
अर्धमूर्छित= semi-conscious
मुत'मइन= appeased
वहशत= horror
दहशत= terror
फ़रामोश= to forget
vested interest = निहित स्वार्थ
आशंका= apprehension
तन्द्रा= sleep