Wednesday, August 25, 2010

1992 और उसके बाद

आज फिर लेखनी मेरे हाथ में है.. या यूँ कहूं कि मैं उसकी शरण में... अतीत के किसी पन्ने को पलटने के लिए... या संभवत: दोनों को ही एक दूसरे की आवश्यकता है.. माज़ी के धुन्दलके को शफ्फाफ़ कर मंज़र-ए-आम पर पुरानी यादें rekindle करने के लिए... और यह देखिये एक खिड़की खुली...इस से आती यादों की हवाओं ने मेरे वजूद को सराबोर कर दिया है....

जुलाई 1992 ईस्वी का अंतिम सप्ताह...

बस से उतर कर, बुर्क़े को समेटती तेज़ी से अपने गुरु श्री विशिष्ट खरे (तत्कालीन प्रधानाचार्य, श्रीमती सुखदेवी इंटरमीडियेट कालेज, हसनपुर) के घर की ओर बढ़ी जा रही थी..रात को ज़बरदस्त आंधी के साथ बारिश होने से हवा में खुन्की भरी तेज़ी थी. सड़क के गड्ढों में पानी जमा होने के कारण तेज़ चलने में दिक्क़त महसूस हो रही थी. आसमान पर गहरे सुरमई बादल घुमड़-घुमड़ कर गर्जना कर रहे थे. बारिश कभी भी अपेक्षित थी.. बुर्क़े को फिर कसा.. रफ़्तार लगभग दौड़ने की हद तक पहुँच गयी थी कि पीछे से एक वैन आयी जिसने गड्ढों की छाती पर मूंग दलना चाहा, प्रतिकारस्वरूप गड्ढों ने न्यूटन के तृतीय नियम को सिद्ध करने हेतु उन में भरा पानी जोर से उछाला जो वैन(हवा की पुत्री ठहरी=मारुती ओमनी ).. तक तो नहीं पहुंचा नतीजतन तू न सही तो ग़ैर सही, पानी मुझ पर आ पड़ा. मैं वैन-चालक को (गड्ढों को नहीं) दिल ही दिल खूब कोसती हुई आगे बढ़ी.गुरूजी के घर में क़दम रखते ही मुझे माहौल कुछ बदला हुआ महसूस हुआ.. मेरे सहपाठी व सहपाठनियां नए या नए जैसे वस्त्रों में सुशोभित थे. शबाना,फरहाना, रुखसाना व मुझ समेत चार लड़कियां थीं जबकि लड़कों में निज़ामुद्दीन, शकील अहमद, जगदीश भैय्या, मुनेंदर (तत्सम रूप मुनीन्द्र है,जिसको हम सभी प्यार से मुनेंदर बल्कि बंदर बुलाते थे), उमेश, मशकूर भाई,हनीफ अहमद थे. ज्ञात हुआ कि आज सर के यहाँ गृह-प्रवेश है. मैं कल नहीं आ सकी थी. सर ने ट्यूशन पढने वालों सभी बच्चों को आमंत्रित किया था..थोड़ा सा अफ़सोस हुआ कपड़ों को लेकर.. आज पढ़ाई का नहीं एन्जोयेमेंट का दिन था यानी कि खाने-पीने का.... देसी घी के लड्डुओं की खुशबू अंदर किचन से आ रही थी... साथ ही साथ पूजा के मन्त्रों के स्वरों ने माहौल पवित्र व आध्यात्मिक कर दिया था. उपस्थित छात्र समूह ने सामूहिक रूप से मेरे कीचड़ से लथ-पथ रूप पर ठहाका लगाया.. हनीफ ने कमेन्ट पास किया,दरोगाजी तो आज कीचड़ में गोली-बारी करके आ रहे हैं (मेरे अनुशासित व्यवहार और सख्त रवैय्ये के कारण मुझे उक्त लक़ब से नवाज़ा गया था,व मेरा खवाब भी पुलिस को ज्वाइन करने का था उस वक़्त मगर,कव्वों के काएं-काएं करने से..... खैर... किसको थी पता किसको था खबर कि मैं दरोगा तो नहीं. दरोगाजी से विवाहित होकर उनके घर की बीवी बन जाऊंगी) . पूर्व इसके मैं हनीफ पर जवाबी हमला करती आंटीजी चाय के कपों से भरी ट्रे ले आयीं. बात टल गयी फिलहाल. बोलीं,'' छुटकी भीतर चलकर कीचड़ धोले.. वो भी बुला रहें हैं ." शायद उन्होंने मुझे ऊपर छत से आते हुए देख लिया था 'वो' से मतलब हमारे गुरूजी थे.. गुरुआइन भी सारी घर की बीवियों की भांति ही 'ये' 'वो' से काम चलाती थी. प्रथमपुरुष का संबोधन तो घर की बीवियों के इतर ही प्रयोग होता है. मैं पढने वालों बच्चों में अपेक्षाकृत आयु में छोटी थी. जिस से सर मुझे छुटकी बुलाते थे. इस वजह और पढ़ने में गुड सेकंड( उस वक़्त आजकल की तरह फर्स्ट डिवीज़न आना आम नहीं था. सो 50 % से अधिक अंक आने पर द्वितीय श्रेणी से अलग करने के लिए गुड सेकंड डिवीज़न का प्रयोग होता था) होने से सर मुझको बहुत लाड़ करते थे. एक वजह और हो सकती थी वह यह कि उनके दोनों पुत्र बाहर नौकरी करते थे व सर और आंटीजी दोनों ही यहाँ रहते थे. मेरे साथ रुखसाना भी उठकर आ गयी वह हैन्डपम्प चलाते-चलाते बोली,''आशकारा! सारे कपड़े भीग गए हैं, मेरे घर चलकर दूसरे कपड़े पहन ले." हम दोनों का साइज़ एक ही था.सर से इजाज़त लेकर दस-पन्द्रह मिनट में कपड़े तब्दील कर हम वापस पार्टी में आ गए. खाना शुरू हो चुका था. मुनेंदर और फरहाना में कौन ज्यादा खाये को लेकर शर्त लगी हुई थी. बाकी लोग उनकी पूरियों की गिनती कर रहे थे. अब तक स्कोर दस-दस की बराबरी पर था. मैं अपनी थाली लगा चुकी थी. फरहाना ने उसमें से भी पूरियां उठा कर खानी शुरू कर दी थीं. मेरी थाली खाली देखकर आंटी ने पूछा, ''अरे छुटकी की पूरियां कौन खा गया?'' फरहाना ने धीमे से कहा,'' मुनेंदर,''
---''बन्दर,'' आंटी ऊंचा सुनती थीं. बन्दर के आने की आशंका से घबराकर ऊपर देखते हुए बोलीं ,''कहाँ है बन्दर?'' मुनेंदर ने जवाबी हमला किया,''आंटीजी, साथ में बंदरिया भी थी, '' इशारा साफ़ फरहाना की तरफ था,''मोटी बंदरिया.'' हम सब पर हंसी का एक दौरा सा पड़ गया. जिसका फरहाना पर कुछ असर नहीं दिखाई दिया क्यूंकि वोह बड़े आराम से खीर के बर्तन पर हाथ साफ़ कर रही थी.
आखिरकार मुनेंदर ने हार कर हाथ खड़े कर दिए. फरहाना विजयी होकर मुस्कुरा रही थी. लेकिन यह क्या फरहाना को उठकर खड़े होने में सहारे की ज़रुरत पड़ गयी थी.
यादगार के किये फोटो-सेशन हुआ. सर बीच में कुर्सी डाल कर बैठ गए. निर्देशानुसार सभी छात्र पीछे खड़े हो गए. मेरे मन में हिचक थी लड़कों के साथ फोटो खिचवाने को लेकर, जिसे भांपकर मशकूर भाई (इनके सीधे स्वभावके कारण हम इनको आपा बुलाते थे) बोले,''घबराओ मत, मेरे साथ खड़ी हो जाओ.'' सभी हंस दिए मगर, मुझे बड़ी तसल्ली मिली थी.

नवम्बर बीस, 1992 ईस्वी.
सायं ठीक चार बजे हम लोग निर्धारित समय पर सर के घर पहुँच गए. सर ने आज इंग्लिश ग्रामर में एक्टिव-पेसिव वॉईस का अभ्यास करने को बोल रखा था.मैं बड़ी उत्साहित थी क्यूंकि मेरे लिए यह एक आसान शो'बा था. परन्तु मुनेंदर और जगदीश भैय्या जो सर के घर से मात्र पचास क़दम की दूरी पर रहते थे, अभी तक नहीं आये थे. कन्फूसियाँ होने लगीं कि क्या बात है आखिर.
हनीफ बोला,''मैं जाकर देखता हूँ, अभी तो सर भी नहीं पहुंचे हैं.'' वह उठकर बाहर चला गया.

थोड़ी देर बाद सर आकर अपनी कुर्सी पर जम गए. उन्होंने आज आफ़-व्हाईटकुरता-पायजामा ज़ेब-तन कर रखा था. साथ टोपी भी लगा रखी थी. मैं मुसाहिबीमें बोली,''सर ऐसा लग रहा है कि जैसे आप जुमे की नमाज़ पढ़ कर आ रहें हैं.''
--''अरी छुटकी!,'' सर ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया,''क्या कहती हो,नमाज़ हो या पूजा. सब उस ईश्वर की होती है और वैसे भी मुझे मेरे साथी तो मौलाना विशिष्ट कहकर बुलाते ही हैं वह यूं कि मैं मुसलमान लगता हूँ.''

मेरा अगला प्रश्न था,''सर लगता हूँ से क्या मतलब? क्या हिन्दू और मुस्लिम के नैन-नक्श में कुछ अंतर होता है?''
----''नहीं छुटकी ऐसा कुछ नहीं है, सिर्फ सोच का फर्क है.." सर कुछ अपसेट हो गए व माहौल बोझिल सा हो गया. मैं समझ नहीं पायी थी. सर उठकर अंदर चले गए थे.
तभी घबराए हुए हनीफ ने प्रवेश किया, बोला,'' जगदीश भैय्या की तबियत बहुत ज्यादा ख़राब है, बेहोश हैं वो और मुनेंदर भी वहां नहीं है.''
हम सभी दौड़ते हुए उनके कमरे पर पहुंचे. पूरा कमरा उल्टियों से व उसकी दुर्गन्ध से भरा पड़ा था. जगदीश भैय्या लगभग अर्ध्मूर्च्छित अवस्था में फर्श पर पड़े हुए थे. पूछने पर वो बुदबुदाते हुए बोले,' रात से उल्टी-दस्त हो रहे हैं." मुनेंदर को बताया कि वह अपने गाँव गया हुआ है,उसके पिताजी की तबियत खराब होने की खबर आयी थी.

शकील अहमद दौड़कर मोटर साइकल ले आया, हनीफ और शकील अहमद के बीच जगदीश भैय्या को बिठा कर डाक्टर के यहाँ रवाना किया गया. हमने वापस आकर सर को इन्फोर्म किया. फिर रिक्शे से हम डा. विनोद के यहाँ पहुंचे. हालत बहुत
खराब थी. डा. साहब बिना घर वालों के बुलाये केस हाथ में लेने को तैयार नहीं थे. खबर इतने समय में कैसे जाती. उन दिनों फ़ोन सहज सुलभ नहीं थे.उनका गाँव काफी दूर था. शकील अहमद ने सयानापन दिखाया,'' आप खर्चे की फ़िक्र मत करें, इलाज शुरू कर दें.''
डा. को भी गुस्सा आना शरू हो गया,''खबर ज़ुरूरी है, कुछ हो गया तो, तुम लोग भी फंस जाओगे.''
अब शकील अहमद को गुस्सा आ गया,'' आपको फंसने-फंसाने की पड़ी है. इसकी जान बचाओ. बाद में जो होगा देखा जाएगा.''
हम सभी लड़कियां दुआ मांग रहीं थीं या पाक-परवरदिगार जगदीश भैय्या को बचा लो. इतने में मुनेंदर सर के साथ वहां आ गया. सर से बातकर डाक्टर साहब मुतम'इन हो गए..

जगदीश भैय्या को आज अस्पताल में चौथा दिन था. हालत काफी हद तक सुधर चुकी थी. उनके घर वाले भी आ गए थे. रोज़ हमारी भी कालिज के बाद एक बार हाजिरी ज़रूर लगती थी. शकील अहमद और हनीफ तो रात को भी वहीं रुकते थे

27 नवम्बर 1992
पूरे एक सप्ताह बाद जगदीश भैय्या हस्पताल से डिस्चार्ज हुए थे. बहुत ज़्यादा कमज़ोर हो जाने के कारण उनके घरवाले उनको गाँव (कनपुरा) ले जा रहे थे. विदा करते वक़्त माहौल सेंटीमेंटल हो गया था. जब वह शकील अहमद से गले लगे तो शकील अहमद की आँखों से आंसूं साफ़ नज़र आ रहे थे हालांकि उनको छुपाने का उसने भरसक प्रयत्न किया था.

उधर मुनेन्द्र से पता चला की पिताजी की बीमारी तो बहाना मात्र थी, घर वाले उसकी सगाई कर रहे थे जबकि वह पढ़ना चाहता था.. उसको जाकर मामला पता चला तो वह भी वहां से बहाना कर भाग लिया.. हम सब ने उसकी खूब खिंचाई की.

6 दिसम्बर 1992
ज्योग्राफी के प्रेक्टिकल का पीरियड था. सर ने आकर सूचित किया,'' कालिज की छुट्टी हो गयी है और आगामी तीन-चार दिन तक कालिज और ट्यूशन दोनों की छुट्टी रहेगी.'' सर फ़ौरन क्लास से निकल गए.

अचानक हुई छुट्टी का कारण किसी की समझ नहीं आ रहा था. तभी चपरासी ने आकर बताया कि ट्यूशन पढ़नेवालों को सर आफिस में बुला रहे हैं. ऑफिस में पहुँचते ही सर मुझसे मुखातिब हुए,'' आशकारा! तुम आज अकेली घर मत जाना!''
--''हम तीन भाई-बहन साथ घर जाते है, हुआ क्या है? कुछ तो बताइये सर?'' मैंने घबराते हुए उत्सुक स्वर में पूछा.
--''हिन्दू-मुस्लिम झगड़ा शुरू हो गया है.'' सर के स्वर में तल्खी मिश्रित निराशा थी,''घबराओ मत जल्दी से घर पहुँचने की कोशिश करो.''

अपने दोस्तों से विदा लेकर हम तीनों बहन-भाई बस-अड्डे पहुंचे. बड़ी भीड़ नजर आ रही थी.जैसे ही हम तीनों बस की ओर बढ़े, पहुँचती हुई बस से उतरते हुए अब्बू दिखाई दिए, हमें देखकर हमारी तरफ लपके. बस में बैठने के बाद अब्बू ने ड्राईवर से फ़ौरन चलने की दरख्वास्त की थी. बस स्टार्ट होकर चलना शुरू हो गयी थी. पीछे से शोर आता सुनाई दिया, देखा तो भीड़-नुमा जुलूस था जो 'राम जन्म-भूमि' के नारे लगाता हुआ बस की ओर लपक रहा था. बस तब तक स्पीड पकड़ चुकी थी. हसनपुर से हमारे गाँव पहुँचने में पंद्रह -बीस मिनट लगते थे लेकिन उस दिन सिर्फ दस मिनट में हम गाँव के अड्डे पर पहुँच चुके थे. रास्ते में दो-तीन जगह बस पर पथराव हुआ था लेकिन ड्राईवर की कुशलता से कुछ नहीं हो पाया था केवल बस का पिछला शीशा टूट गया था. हाथ-पैर डर और आंतक की वजह से शल हो चुके थे. घर तक पहुँचते-पहुँचते आधा घंटा लग गया. रास्ते में जगह-जगह लोग रेडियो से बाबरी मस्जिद के गिराए जाने की ख़बरों को सुन रहे थे..

अम्मी को दरवाज़े पर फिक्रमंद खड़ा पाया. हमारी डर और थकान से हालत ख़राब थी. मैं चुपचाप पलंग पर लेट गयी फिर नींद आ गयी.

मैं जब सोकर उठी तो लगभग शाम हो चुकी थी. दरयाफ्त पर मालूम हुआ कि हालात बहुत ख़राब हो चले है. हसनपुर में कर्फ्यू लग चुका था. पता चला कि कुछ बदमाश लोगों ने देवेन्द्र नागपाल की हथियारों की दूकान लूट ली है.. याद नहीं पड़ रहा कि उसकी हत्या हुई था या वह घायल हुआ था सिर्फ. उसके बाद हालात बद से बदतर होते गए. पीऐसी व पुलिस द्वारा जवान लड़कों को घरों से खींच कर ले जाया जाने लगा. मोहल्ला लाल-बाग़ में हालात बहुत ज़्यादा ख़राब हुए थे.

अब जो मैं लिखने जा रही हूँ इसका मुझे तीन महीने बाद पता चला था जब हम सभी पढ़नेवाले बच्चों की मुलाक़ात हुई... मेरी तीनों दोस्त जब कालिज से घर के लिए निकलीं तो रास्ते में उन्हें बड़ी मुश्किलें पेश आयीं क्यूंकि हसनपुर में तब तक आग भड़क चुकी थी. हर गली में पथराव हो रहा था. तीनों हांपती-कांपती घरों-घरों से निकलती हुई रुखसाना के घर पहुँच पायी थीं जो नागपाल हथियार-फ़रोश की दूकान से नज़दीक ही था. उन्होंने उसकी दूकान लुटने वाली आवाजें घर के अंदर से सुनी थीं.

उधर निज़ामुद्दीन और मुनेंदर कमरे पर पहुँच कर डर रहे थे.. सर से मशवरा करने पर सर ने उनको गाँव चले जाने की सलाह दी. घर कैसे जाए. बसों में आग लगाई जा रही थी. माहौल में हर तरफ़ वहशत दहशत बरपा थी. यहाँ पर भी सिर पर मौत आ खड़ी हुई थी. जान को खतरे में डालकर जाने का फैसला ले लिया उन्होंने. अगले दिन कर्फ्यू में दो घंटे की ढील दी गयी. दोनों किसी तरह निकल कर उझारी जाने वाली बस में सवार हो गए. निजामुद्दीन उझारी का रहने वाला था जो कि मुस्लिम-बहुल आबादी थी लेकिन मुनेंदर का गाँव उझारी के बाद पड़ता था. इसके अलावा उसको पैदल ही मुसलमानों के कई गाँवों से गुज़रकर जाना पड़ता था. उझारी पहुँच कर निज़ामुद्दीन ने उसको दिलासा दिया,'' तू घबरा मत. मैं तुझको तेरे गाँव की सीमा तक छोड़ कर ही आऊँगा. मेरे होते तुझे कोई खतरा नहीं होगा.

उधर हमारे गाँव सिहाली-जागीर ने धर्म-निरपेक्षता की फरामोश न कर सकने वाली मिसाल कायम कर दी थी. हमारा गाँव 95 फ़ीसदी मुसलमानों(पठानों) से आबाद है बाकी 5 % में हिन्दुओं की विभिन्न जातियां रहती हैं. मगर हमारे यहाँ कोई झगड़ा नहीं था. हिन्दुओं के रिश्ते-नातों के यहाँ से फ़ोन 'लाला' के घर आ रहे थे कि गाँव से भाग आओ. उन्होंने पलटकर जवाब दे दिया कि अगर आप को कोई कुछ कहता हो तो आप सिहाली आ सकते हो. हमारी चौपाल पर रोज़ कोई पचास-साठ आस-पास गाँव के लोग ठहरे हुए होते थे. ये ज़्यादातर डेली-बेसिस के सेल्ज्मेन थे जो कर्फ्यू की वजह से हसनपुर को क्रॉस नहीं कर पा रहे थे. उन शरण लिए लोगों के लिए हर घर से हस्बे-हैसियत खाना भेजा जाता था. उनमें से जो किसी भी हालत में अपने गंतव्य को जाना चाहते थे. वो खेतों के रास्ते से अपने घरों की ओर निकल लिए जो कभी अपने घरों को नहीं पहुंचे... बहुत बाद में एक गाँव(नाम रहने दें) के जंगलों के कुओं से दस दस सर-विहीन शव बरामद हुए थे...

समय समय के साथ बीत गया क्यूंकि उसको बीतना ही होता है. बाबरी मस्जिद जिसका नाम हमने अबसे पहले सुना भी नहीं था, खुद भी गयी और अपने साथ न जाने कितने मासूमों को ले गयी. क्यूंकि यह तो एक मामूली गाँव की मामूली लड़की के अनुभव है... पूरे देश का हाल देश ही जानता होगा क्यूंकि वह तो सबका होता है. देश की ज़मीन तो बिना जाति-मज़हब का भेद किये सबको उपकृत करती है. हम सब इसी देश इसी ज़मीन की संतान हैं, पैदावार हैं, जिनकी अकाल मृत्यू से उसका हृदय निश्चित रूप से रोता होगा,पर वह कुछ नहीं कर पाता, मजबूर है उन लोगों के हाथों जो उसको चला रहें है. जो अपने निज-स्वार्थों के लिए खून की होली खेलते आये हैं.. हम नॉन-पोलिटिकल लोग कब समझेंगे कि इन लीडरों का कोई धर्म नहीं होता जो सिर्फ अपने वेस्टेड इंटरेस्टस के लिए हम लोगों को लड़ाते हैं.

मार्च 1993
आज फिर में उसी रास्ते पर अपना बुर्क़ा संभालती हुई बढ़ी चली जा रही हूँ, दिल दहशत में है, ज़हन में बहुत सारे सवाल है. जिनके जवाब मैं जानती हूँ किसी के पास नहीं है.. हम सारे स्टुडेंट्स आज भी साथ पढ़ रहें है.. लेकिन हमारी निश्छल हंसी-ठिठोली न जाने कहाँ गुम हो चुकी है. किसी से कुछ कहने से पहले आशंका हो जाती है कि कहीं बुरा न मान जाए कि उसके जाति-मज़हब पर कंमेंट क्यूँ कर रहे हो..

दू र कहीं पान के खोखे पर गाना सुनाई पड़ा ,'' कोई जन्नत की वो हूर नहीं मेरे कालिज की एक लड़की है...'' मेरी तन्द्रा टूट गयी.. सर का घर आ गया था.

बाकी आइन्दा...........


********** Trouble Shooting
माज़ी= Past
शफ्फाफ़= Clear
मंज़र-ए-आम= to put forward
rekindle = दुबारा जलाना means त्ताज़ा करना
वजूद= existence
सराबोर= shower
खुन्की= cold
गर्जना= roar
प्रतिकारस्वरूप= in retaliation
न्यूटन का तृतीय नियम= To every action there is always an equal and opposite reaction
सहपाठी= class mate
सुशोभित= decorated
तत्सम= pure
लक़ब= title
शो'बा= department
ज़ेब-तन= dressesd
मुसाहिबी= दरबारी लफ्ज़ है. साहब मतलब higher office के subordinate staff को मुसाहिब कहते हैं. जिनका काम साहब को खुश रखना और उनकी हाँ में हाँ मिलाना होता था.
अर्धमूर्छित= semi-conscious
मुत'मइन= appeased
वहशत= horror
दहशत= terror
फ़रामोश= to forget
vested interest = निहित स्वार्थ
आशंका= apprehension
तन्द्रा= sleep

Wednesday, July 21, 2010

' धमकी, बनारस और तिलिस्मे होश-उड़ा'

मिस्टर फ़ारूक़ी को मैं 'चलती फिरती बुक-शेल्फ' कहूँ या और कोई संज्ञा दूँ, दिमाग़ अब तक सोच नहीं पाया. उनके बारे में आज तक जो मैं जान पायीहूँ वो इस उम्मीद में आप के साथ शेयर कर रही हूँ कि संभवत: आप ही उनके लिए यथोचित विशेषण सुझा सकें.
परिणय-सूत्र में पिर-कर इनके जीवन में प्रवेशित होकर अवतरित होने से पूर्व मैंने लोगों से सिर्फ,इनकी चर्चा सुन रखी थीं कि बातें कम ग़ुस्सा ज़्यादा करते हैं... सबसे बड़ी बात यह कि पढ़ते बहुत हैं.......जो कि बिलकुल सत्य पाया. दिल्ली के सरकारी फ़्लैट पर जीवन की आवश्यक सभी वस्तुओं के बीच किताबों की अधिकता थी. यहाँ तक कि किचन व टॉयलेट में भी पुस्तकें विद्यमान थीं. पूछा तो जवाब मिला कि किताबें मेरा पहला प्यार हैं और किताबों में भी सुरेन्द्र मोहन पाठक के जासूसी नॉवेल ही ज़्यादा थे.
साधारणत: 'सुरेन्द्र मोहन पाठक' एक नाम हो सकता है, हिंदी पढने वालों के लिए यह एक जासूसी उपन्यास लेखक का नाम है... परन्तु मेरे लिए.. ''आई डोंट नो व्हाट आई से....'' खैर..... बात उन दिनों से शुरू करनी पड़ेगी जो किसी भी महिला के किये सबसे रूमानी और महत्वपूर्ण समय होता है व जिसको वह जीवन भर सहेजकर रखना चाहती है.हमारे हनीमून के लिए 'उन्होंने' (घर की बीवी के पास शुरू के दिनों में अपनी ख्वाहिश ज़ाहिर करने की कम ही गुंजाइश होती है) संसार की प्राचीनतम नगरी को चयनित किया.मुझे कारण बताया गया था कि दैहिक प्रेम अस्थाई होता है जबकि बौद्धिक एवं आध्यात्मिक प्रेम सात्विक व शाश्वत होता है जिसको बनारस व सारनाथ में फ़ील किया जाएगा, इसके इलावा इनकी, इनके बड़े भाई (बड़े भाई जैसे नहीं कहना चाहूंगी) श्री विनय श्रीवास्तव के परिवार से मिलाने की भी ख्वाहिश शामिल थी .
यह इनके साथ मेरी पहली ट्रेन-जर्नी थी. काशी-विश्वनाथ एक्सप्रेस में यूँ तो हम दोनों का साथ-साथ रिजर्वेशन था लेकिन, कोई भी व्यक्ति विश्वास नहीं कर सकता था कि मैं इनके साथ हूँ. रीज़न बिहाइंड दिस यह सामने वाली सीट पर बैठे सुरेन्द्र मोहन पाठक के नॉवेल ' धमकी ' में तल्लीन थे और मैं ताज़ी-ताज़ी दुल्हन के लिबास में लदी-फंदी व मेक-अप में लिपी-पुती दूसरी सीट पर बैठी खिड़की के शीशे से बाहर झांकती हुई सोच रही थी आखिर इस नॉवल में नई दुल्हन से अधिक रुचिकर ऐसा क्या है, जो ये एकबार भी मेरी तरफ देखने की तकलीफ नहीं कर रहे थे, बात करने की बात तो बहुत दूर की बात थी(तब मैंने क़सम खाई कि सुरेन्द्र मोहन पाठक को पढ़कर ज़रूरदेखूंगी, हालांकि इस से पहले एक दो नॉवेल ज़रूर पढ़ रखे थे, परन्तु सामाजिक, क्यूंकि जासूसी नॉवेल "ए" सर्टिफिकेशन में आते हैं). अरेंज्ड-मैरिज होने की वजह से मैंने पहले इनको नहीं देखा था इस लिए कॉमन-प्लेस में बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी.इस फ़िल्मी 'अकेलेपन की सिचुएशन' में मैं चाहती थी कि बात करने की पहल ये करें..समय कटे और सफ़र आसान हो जाए... पर कैसे?? कि ट्रेन रुकने लग गयी और मुझे बहाना मिल गया.

------" सुनिए कौन सा स्टेशन आ रहा है?''

यह प्रश्न तीसरी बार रिपीट करने पर जवाब मिला,'' पढना आता है. बाहर देखो, शायद कहीं पर लिखा होगा.'' इतना कड़ुआ जवाब सुनकर मेरी आँखों में आंसू भर आये और मैं विंडो-ग्लास से मुंह सटाकर चक्षु-मार्ग से ग़ुबार-ए-दिल निकालने लगी. ट्रेन रुकी, रुक कर फिर चल पडी गंतव्य की ओर... और मैं हिचकियों को दबाये, अश्रु-पूरित आँखों से समान्तर पटरियों को निहारती रही कि एकदम से किसी ने मेरे सर पर हाथ रख दिया, पलटकर देखा तो सामने की सिंगल सीट वाली आंटी थीं, पूछ रहीं थीं,''बेटी किसके साथ हो? कोई छूट गया क्या?"


मैं कुछ जवाब देतीं कि पतिदेव नॉवेल से मुंह हटाकर बोल उठे,''आंटी आपको कुछ चाहिए? यह मेरे साथ हैं!''

आंटी सकपका गयीं, खिसियाहट छुपाकर बोलीं,'' साथ हैं तो साथ बैठोन, नयी दुल्हनिया हैं, कुछ बोलो-बतियाओ, देखो कैसे आँखें लाल कर लींहैं.''

पतिदेव ने कुछ रियलाइज़ कर पास आकर बैठने का उपक्रम करते हुए पूछा,'' भूख लगी लगी है, कुछ खाओगी क्या?"

रुंधे कंठ से मैंने उत्तर दिया,"नहीं.''

------''तो ठीक है. सो जाओ थोड़ी देर के लिए. ओबवियस्ली, लड़कियों को मायके की याद तो आती ही है . तुम्हें नींद आ रही है. आँखें लाल हो रहीहैं. सोकर फ्रेश हो जाओगी,'' कहकर अपने कर्तव्य-बोध की इतिश्री कर फिर 'धमकी' में गुम हो गए.

ट्रेन शनै:शनै: मंजिल की ओर बढ़ी जा रही थी.. मैं सोच रही थी कि राहे ज़िंदगी भी इसी तरह ''दूसरी पटरियों'' को निहारते न गुज़रे. मगर यह डर बनारस पहुँच कर किसी हद तक कम हो गया .
विनय भैय्या स्टेशन पर आये थे लेने, जिस से हम हम लोकल ऑटो और रिक्शे वालों के 'अतिथी देव: भव:' के रिसेप्शन से बच गए. घर 'शिव-पुर' में था. बहुत ही स्वीट लोग थे. बड़ी दीदी से तो बात करके ऐसा महसूस हुआ था कि मन पर ओस की शीतल फुहार पड़ रही हो. उन्होंने फारूकी साहब की बहुत तारीफ़ की "बहुत अच्छा लड़का है सुहैब . मन तो बालक सामान निश्छल है उसका .''.मैं चाहती थी कि वो सारे काम छोड़ कर बस मेरे नज़दीक बैठी रहें. पहले दिन थकान उतारी गयी. फ़ारूक़ी साहब ने 'धमकी' ख़त्म करके विनय भैय्या को हस्तांतरित की ...वह भी पाठक साहब के मुरीद थे..
अगले दिन हम सारनाथ गए. सारनाथके बारे में पढ़-सुन रखा था कि महात्मा बुद्ध ने ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात प्रथम बार ''धर्मोपदेश'' दिया था. लगा कि विवाह=ज्ञान-प्राप्ति के उपरान्त प्रथम उपदेश हेतु फ़ारूक़ी साहब यहाँ लाये हैं मुझको.
विनय भैय्या ने बताया कि सारनाथ ,''सारंगनाथ'' शब्द(जिसका शाब्दिक अर्थ lord of deer ) का अपभ्रंश है. बोधिसत्तव ने मृगावतार के दौरान , फाख्ता को मारने को तत्पर राजा को बदले में अपना जीवन अर्पित करदिया था, राजा ने प्रेरित हो कर तब इस क्षेत्र को मृगों के लिए संरक्षित करदिया था. …. हमने वहां पर अपने देश (भारत देट इज़ इण्डिया) का राजचिन्ह भीदेखा.

अगले दिन हम लोग यानी मैं, पतिदेव, विनय भैय्या व उनकी धर्मपत्नी (जो उस समय घर की बीवी थीं मगर अब ग़द्दारी कर प्रशिक्षित स्नातक अध्यापिका बन गयी हैं) विश्वनाथ मंदिर गंगा- घाट पर गए. यूँ तो गंगा नदी मेरे मायके(गढ़-गजरौला) से सिर्फ़ नौ-दस किलोमीटर दूरी पर ही है. परन्तु यहाँ पर गंगा को साक्षात 'तारिणी' के रूप में देख रही थी.. 'मणिकर्णिका' घाट देखा..महाराजा हरिश्चंद्र की कम उनकी पत्नी और बेटे की ज्यादा याद आयी. भारत का जातिवाद इन घाटों पर भी अपने अक्षुण रूप में विद्यमान पाया . नौका विहार किया. 'सतयुग' से निकल कर यतार्थ में आये. .. खूब सारी सीढ़ियों को चढ़कर साड़ियों की दूकान पर पहुंचे. पतिदेव ने अनुदेश दिया ,''चलो एक साड़ी पसंद करलो.''

मैंने आदेशानुसार एक साड़ी पसंद कर ली. इन्होने सेम टाईप की पांच साड़ियाँ पैक करने को कहा.

दूकानदार ने असमर्थता ज़ाहिर की,'' बाबूजी ऐसी तो तीन ही बचीं हैं.''

ये बोले, ‘’तो एक ही क्वालिटी की पाँच साड़ियाँ पैक कर दें.''

मैंने हिम्मत कर हलक़ से 'लेकिन' शब्द उच्चारित किया, उत्तर मिला ,'' एक तुम्हारी, एक अम्मी(सासुजी) की, एक भाभी(जेठानी)की, और दो बहनों(ननदों)की.....''

अगले दिन पिक्चर जाने का कार्यक्रम बना. घर के बच्चे जैसे इस प्रोग्राम ही का इन्तिज़ार कर रहे थे. ''लगान'' और ''ग़दर'' की बीच प्रतिद्वंद्विता थी. मतलब यह कि देशभक्ति पर क्रिकेट भारी पड़ा. फिल्म देखी बहुत ही अच्छी थे.. हम लोग ही कुल मिलाकर पंद्रह गए थे देखने जबकि आमिर खान बेचारा बड़ी मुश्किल से अंतिम एकादश बना पाया था.

वह पांच दिन कैसे कटे, पता ही नहीं चला.. आज वापसी थी. मैं पैकिंग कर चुकी थी. मैंने जानबूझकर ''धमकी'' को वहीं दीवान के तकिये के नीचे सरका दिया था . माहौल फ़िल्मी रूप से भावुक हो चला था. तोहफों का आदान-प्रदान हो चूका था. तभी दीदी ने नॉवल मेरे हाथ में थमा दिया, लो बेटा यह यहीं छुट रहा था.. भारी मन से 'धमकी' बैग में ठूंस दी.

अंतत: ट्रेन में अपनी रिज़र्व्ड सीटों पर अधिकार के उपरान्त बनारस-स्पेशल कुल्हड़ वाली चाय से अंतिम बार रसावादन किया गया. गाड़ी खुलने में (बनारसी ज़ुबान में गाड़ी छूटना नहीं, खुलना कहा जाता है) कुछ समय था. इन्होने मुझसे बड़े ही अपनत्व से पूछा,''आशी तुम्हें यहाँ आकर अच्छा लगा न.'' मैंने उनको हैरत से देखते हुए अपनी गर्दन हाँ में हिलाई. इस मुस्कुराहट और अपनत्व पर मैं निसार होगयी. चलो अब ''धमकी'' के आतंक से तो मुक्ति मिलेगी.. तभी ……

हमारी सामने वाली शायिका पर एक पर्दा-नशीं दोशीजा आकर क़याम-पज़ीर हुई. बिलकुल ''मेरे महबूब'' वाली साधना-स्टाइल सा गेट-अप था. फ़ारूक़ी साहब की तवज्जो उधर हो गयी. मोहतरमा का पूरा जिस्म बुर्के से ढंका हुआ था. चेहरे पर भी नक़ाब थी जिस से सिर्फ आँखें नुमायाँ हो पा रहीं थीं. बड़ी ही मसहूरकुन निगाहें थीं जनाब की. जिसका जादू शायद फ़ारूक़ी साहब पर और आस-पास पर छा रहा था.फ़ारूक़ी साहब चाय पीना भूलकर मुझसे धीमे से बोले,'' कितनी खूबसूरत है!जैसे शेहरे-ख्वाबां में गज़ाला ' लगता है कि 'तिलिस्मे-होशरुबा' की हीरोइन उतर आयी हो.'' काश दीदार हो जाए' इन्होनें बिलकुल हातिम-ताई स्टाइल में डायलोग डिलीवर किया.

मैं जल-भुन गयी, लेकिन एहसास न होने दिया. ट्रेन के आगे बढ़ने के साथ साथ इनकी बेचैनी और मेरी स्त्रीयोचित-जलन भी बढ़ती जा रही थी. यूँ तो दिखावे के लिए फ़ारूक़ी साहब ने अखबार ले रखा था. मगर नज़र बार-बार उधर ही ही चली जाती थे. बोले,शायद अकेली हैं!''

मैंने बनकर पूछा, ‘ कौन? आपकी बहनजी." खिसियाकर फारूकी साहब मुस्कुरा दिए. मज़ीद बोले, ''अरे अख्लाकन तो पूछना चाहिए कि किसी चीज़ की ज़रुरत तो नहीं है?'' मैंने दूसरी तरफ़ मुंह कर उस वक़्त को कोसना शुरू कर दिया जिस वक़्त इस हातिमताई की अम्मा ने कम्पार्टमेंट में क़दम-आराई की थी. मोहतरमा भी इस स्थिति से खूब आनंदित हो रहीं थीं. .

रात हो गयी. आँख लग गयी. आँख खुलने पर पता चला कि गाड़ी ग़ाज़ियाबाद से निकल रही है. मोहतरमा की नक़ाब बदस्तूर थी.फ़ारूक़ी साहब की मायूसी से मुझे अंदाज़ा हो चला था कि 'तिलिस्मे-नक़ाब' बरक़रार है.

गाड़ी अपनी रफ़्तार कम कर प्लेटफार्म के साथ रेंगने लगी थी. सहयोगी यात्रियों ने शालीनता, सभ्यता आदि संस्कारों से अपने आप को अलग कर आगे निकलने की होड़ शुरू कर दी थी. कुछ अतिसुसभ्य पुरुष 'अनजान' होकर सीटों के बीच खड़ी महिलाओं से स्पर्श-सुख की अनुभूति करने में प्रयासरत थे.

खुद फ़ारूक़ी साहब का भी लगता था उतरने का कोई इरादा नहीं था. हारकर पूछा,'' उठना नहीं है क्या?''

‘’अरे उठ जायेंगे!'' मैडम पर चोर नज़र डालते हुए उन्होंने कहा,'' अभी तो और भी लोग बैठें हैं.'' मैं तिलमिलाकर रह गयीं.

मोहतरमा के एकदम सामने बैठे सज्जन ने ऊपर वाली बर्थ से अपना बैग उतरना चाहा, हाथ उनके ऊपर और दृष्टि मैडम पर थी. ब्रेन ने मल्टी-टास्किंग में सफल होने से मना कर दिया. परिणामस्वरूप बैग उनके हाथ से फिसल गया जिसको उन्होंने थामने का सिंसियर प्रयास किया. लेकिन बैग भी 'पुरुषवाची' था. मैडम का नक़ाब साथ नीचे ले आया.........

फिर…..

‘’वक़्त थम सा गया. नब्ज़ रुक सी गयी.'' क्या वर्णन करूँ? कुफ्र टूटा खुदा-खुदा करके , मोहतरमा का नूरे-मुजस्सिम सामने था. उपस्थित पुरुषों एवं खुद मोहतरमा की हालत देखने लायक थी. अल्लाह मुआफ़ करे! क्यूंकि आदमज़ात 'अशरफ़ुल-मख्लूकात' है..मैडम का मुखारविंद तिलिस्म वालें कथानकों की भांति अभिशप्त नायिका जैसा निकला था. 'मुन्नी-लाल-चुन्नी' वाली कहानी का भेड़िया नक़ाब के भीतर छुप कर बैठा था. ठोड़ी पर बाल लटक रहे थे. हल्की-हल्की मसें भी भीगीं हुई थीं. ऊपर के अगले दो दाँत होटों से बाहर निकलने को बेताब थे.. ''तिलिस्मे होशरुबा'' फ़ारूक़ी साहब का ‘होश-उड़ा’ चुका था.. उनकी शक्ल देखने लायक थी.

मेरा हंसी के मारे हाल बुरा था. सफ़र की साड़ी कुढ़न व थकन उतर चुकी थी. ये सफ़र ज़िंदगी का यादगार सफ़र है...

बाक़ी आइन्दा.
खुदा-हाफ़िज़.

मुश्किल-कुशाई == trouble shooting
यथोचित विशेषण = apropriate/specific name
परिणय-सूत्र = nuptial knot
दैहिक प्रेम = physical affection
सात्विक व शाश्वत = pure & eternal
बौद्धिक एवं आध्यात्मिक = intellectual & spiritual
चक्षु-मार्ग से ग़ुबार-ए-दिल= dust of heart through way of eye
अश्रु-पूरित = full of tears
कर्तव्य-बोध की इतिश्री completion of dutifulness (sattire)
शनै:शनै: slowly
हस्तांतरित transferred
प्रशिक्षित स्नातक अध्यापिका TGT trained graduate teacher
अक्षुण intact, uninterrupted
निसार = क़ुर्बान
दोशीजा = unmarried girl
क़याम-पज़ीर = बैठ गयी
मसहूरकुन = fascinating
शेहरे-ख्वाबां में गज़ाला a deer-eyed in dream-city
'तिलिस्मे-होशरुबा' = an old urdu epic of awadh region
स्त्रीयोचित = womanlike
अतिसुसभ्य = ultracultured
स्पर्श-सुख की अनुभूति = feeling of touching
पुरुषवाची = masculine gender
आदमज़ात 'अशरफ़ुल-मख्लूकात'= the human is superior among of all creatures
'मुन्नी-लाल-चुन्नी' वाली कहानी का भेड़िया = इस बाल कथा में एक भेड़िया औरत के कपड़े पहन कर मुन्नी लाल चुन्नी को खाने लिए छद्म वेश में बैठ गया था.
मुखारविंद= face
अभिशप्त = cursed

Friday, July 9, 2010

बचपन

इसी समर वेकेशन में एक सुबह जब मैंने अपनी बच्ची को जगाया तो उसने उठने से साफ़ इनकार कर दिया और दो करवटें लेकर पेट के बल लेट गयी, बोली,'' मम्मा सोने दो न, खूब दिन की छुट्टी चल रही है न.'' मैं बोली,'' नहीं बेटा, उठो जल्दी से ब्रुश कर लो क्यूंकि तुम्हें अपना छुट्टियों का होमवर्क करना है.'' इस पर भी जब वह नहीं उठी तो उसको मैंने ज़बरन उठाया और टॉयलेट में बिठा दिया. वह बोली ,'' नहीं आ रही.'' मैंने डांटा,''ट्राई करो.'' काफी देर बैठी वह रोती-हुमुकती रही. आखिर मैंने उसे उठाया, बाथरूम ले जाकर ब्रश थमा दिया. उसने रोते हुए ब्रश करना शुरू किया. नहला-धुलाकर उसके आगे नोटबुक-पेन्सिल रखकर कहा,'' बेटा वन से हंड्रेड तक नम्बर्स लिखो, तब तक मैं तुम्हारे लिए दूध लाती हूँ.
जब मैं दूध लेकर लौटी तो मेरी बिटिया ने मुझ पे सवाल दाग़ा,'' मम्मा! जब आप मेरी तरह छोटी थीं तो क्या नानी भी आपको इत्ता सारा होमवर्क कराती थीं?'' मैं निरुत्तर हो गयी,बोली,''चुपचाप काम करो!'' परन्तु मस्तिष्क में बहुत से सवालात,ख्यालात कुलबुलाने लगे----आखिर इतने छोटों बच्चों से (बिटिया यू.के.जी. में है) हम इतनी जल्दी इनका बचपन क्यूँ छीन रहें हैं. किचन के पेंडिंग काम निबटाते हुए गुड़िया का सवाल हथौड़े की तरह दिमाग में चोट कर रहा था. अपने बचपन की तुलना अपनी बिटिया के बचपन से करने लगी...
हमारे घर के आंगन में बहुत बड़ा जामुन का पेड़ था जिस पर अब्बूजी ने झूला डाल दिया था. सुबह उठते ही झूले पर बहुत देर तक झूलते रहना...उसके बाद नानी के घर जाना... आंगन में लगे अमरुद और बेरी के पेड़.. पेड़ पर से अमरुद और बेर चुनना.. दागों के लगने के डर के बिना उनको जेबों में भर लेना..नीचे से नानी आवाज़ लगाती.. कोसनों(Curse) में लिपटी दुआएँ देतीं.''नसीब-ए-बर(Fortunate)! तेरा नास न हो...नीचे उतर आ ''
अम्मी की आवाज़ कानों में पड़ती, ''स्कूल नहीं जाना क्या? चलो ठीक है. आज खेत में पनीर(धान की रोंपाई) लग रहा है. वहां जाकर अब्बूजी को रोटी दे आना.''

मुझे कुछ याद आ गया,''नहीं अम्मी! आज तो मुझे स्कूल ज़रूर जाना पड़ेगा, क्यूंकि मेरा इमला(श्रुतिलेख) बोलने का नम्बर है और स्कूल की चाबी भी मेरे पास है.''
---''चाबी तूने क्यूँ ली?''
---''मास्टर साहब ने यह रूल बना दिया है कि जो बच्चा सुबह स्कूल खोलकर झाड़ू लगाएगा वही 'इमला' बोलेगा.''
--''ऐसा क्यूँ?''
--''सब बच्चे इमला लिखने से बचना चाहते है. हर ग़लती पर मास्साब एक डंडा मारते हैं..''
--''अच्छा ठीक है. स्कूल से जल्दी आ जाना और बहनजी (लेडी टीचर) से पीले और काले रंग का स्वेटर, वह जो कल स्कूल में बुन रहीं थीं, ले आना तेरे भाई के स्वेटर में वही डिज़ाइन डालना है..''
--''ठीक है.'' कहते हुए जल्दी से बची हुई घी लगी रोटी चाय से हलक़ में निगली और बस्ता कंधे पर डाल लिया.
हमारे स्कूल के रास्ते में ही खालाजान का घर पड़ता था . मैंने अपनी कज़िन को आवाज़ लगाईं,''बेबी! आ रही है क्या?'' क्यूंकि उन दिनों स्कूल जाना आजकल की तरह प्राथमिकता में कभी नहीं था एक ऑप्शनल काम था . बेबी मेरी ही कक्षा में थी. जैसे ही वह बाहर निकली, मैंने अपना बस्ता भी उसको पकड़ा दिया, उसने ऐतराज़ किया..
--''अरे तू मोटी-तगड़ी है न और फिर मैं तेरी इमले में भी मदद करूंगी?'' सेहतमंद होने पर तो नहीं लेकिन दूसरे बिंदु पर समझौता हो गया. मगर वह चुप-चुप थी. पूछने पर पता चला कि उसके बड़े भाई नहीं चाहते थे कि लड़कियों को पढ़ाने की कोई ज़रुरत है.उनके विचार से वे स्कूल जाने से बिगड़ जाती हैं..
मैंने सांत्वना दी,'' खालाजान से तेरी सिफारिश करूंगी.''
--''भाईसाहब बहुत मारेंगे. मेरे स्कूल जाने से घर के काम का नुकसान भी होता है न.''
स्कूल पहुंचकर ताला खोला, मिलकर कमरों में झाड़ू लगाईं. कुल मिलाकर दो ही तो कमरे थे स्कूल की इमारत में. फर्श झाड़कर लाइन में बिछाए, मास्साब की कुर्सी-मेज़ भली-भांति साफ़ की और श्यामपट्ट को भी साफ़ कर तिथि डाल दी. बेबी ने ज़ोरसे घंटी बजाकर स्कूल के खुलने का ऐलान किया.
शनै-शनै सभी बच्चे आकर अपनी निर्धारित जगहों पर बैठ गए. मेरी कक्षा में कुल 60 विद्यार्थी थे. लेकिन औसतन रोज़ पच्चीस से ज़्यादा नहीं आ पाते थे क्यूंकि ज़्यादातर किसान- मज़दूर परिवारों से थे जो कि जीवन-यापन में अपने माँ-बाप की सहायता करते थे... फसल-कटाई के दिनों कटाई करवाते, बाग़ों की बहार आने पर दिन भर तोते उड़ाते. इन दिनों धान की रोंपाई चल रही थी. आज की नफरी 35 थी. इमला बोलने के टास्क को लेकर मैं बहुत उत्साहित थी.
तूफ़ान के आने पूर्व सन्नाटा छाता है. परन्तु मास्साब के आने से पहले शोर का तूफ़ान बरपा था. उनके आने पर शान्ति छा गयी व शीशम का स्वस्थ/मोटा डंडा मेज़ पर पड़ते ही शांति नीरवता में परिवर्तित हो गयी.
मास्साब टिपिकल देहाती आदमी थे. कनिष्क महान के वंशवृक्ष से अपनी वंशबेल मिलती बताते थे. कुर्सी को उपकृत करके कंधे पर पड़े गमछे से अपना विस्तृत और झुर्रीदार ललाट पौंछा, दीवार की ओर आदेश उछाला,'' अरे कोई पानी तो पिलाओ रे!''
गंगा' तत्परता से उठकर ग्लास धोकर पानी ले आयी. ग्लास को थामते ही मास्साब की दृष्टि गंगा पर पडी. पानी को नज़दीकी उपलब्ध रिक्त स्थान पर फ़ेंक कर गरजते हुए राजीव को ग्लास मांजकर फिर से पानी लाने का निर्देश दिया. उस वक़्त तो नहीं लेकिन कुछ सालों बाद मैं इस बात को समझ पाई थी कि ‘गंगा’ और 'धीरे' दोनों बहनें समाज की उस जाति से सम्बन्ध रखती थी जिसके आदिपुरुष को 'रामायण' का रचियता माना जाता है जबकि हमारे मास्साब वीर-महान' 'गुर्जर' थे. मगर विडंबना देखिये कि आज-कल यह 'वीर और महान' जाति अनुसूचित जाति से एक क़दम और आगे जाकर अनुसूचित जनजातियों में सम्मिलित होने के लिए आंदोलनरत है... खैर.. परिवर्तन और फैशन बेंज़ीन के सूत्र की तरह होते हैं..
मास्टर साहब ने पूरे इत्मीनान से, उन दिनों सिलेबस और वक़्त में सामंजस्य की कोई शर्त नहीं थी, श्यामपट्ट पर गणित का एक प्रश्न उतारा. मुझे छोड़कर कोई बच्चा सवाल को हल नहीं कर पाया रीज़न बिहाइंड दिस..पूरे गाँव में मेरी ही मां दसवीं तक पढी हुई थीं जो मुझको घर पर पढ़ा दिया करती थीं (बावजूद इसके 'घर की बीवी' ही थीं वजह आगे ब्यान करूंगी). मास्साब बहुत खुश हुए,'' आशकारा! आज से तुम क्लास की मानिटर हो. मेरे पीछे सब बच्चे इसकी बात मानोगे." यह सुन 'इरफ़ान' जो एक दबंग पठान बच्चा था बोला,'' मास्साब! हम एक लडकी को अपना मानीटर नहीं बनायेंगे. मानिटर मैं ही रहूँगा."
इरफ़ान में इस उम्र में ही ‘पुरुष-प्रधान मानसिकता’ के प्रस्फुटन से मास्साब कुछ विचलित हो गए. इसके इलावा इरफ़ान सेहत और उम्र दोनों में मुझसे इक्कीस था मगर ग्राम-प्रधान का पुत्र होना सबसे बड़ा कारण था कि मास्साब ने, जोकि प्रधानजी से रौब खाते थे, इस समस्या का तुरंत विशुद्ध राजनीतिक निदान ढूंढ ही लिया, ''अच्छा ठीक है. लड़कियों की मानिटर आशकारा होगी व इरफ़ान तुम लड़कों के मानिटर रहोगे.'' इसका तुरंत प्रभाव इमला बोलने के समय ही दिख पड़ा, जब इरफ़ान ने मेरे हाथ से किताब छीनकर डांटा,''जाओ सिर्फ लड़कियों को इमला बोलो!'' मास्साब से शिकायत करने पर वह, इरफ़ान से बड़ी मुश्किल से सिर्फ आज के लिए मुझे इमला बोलने का अधिकार दिला पाए चूँकि स्कूल मैंने खोला और साफ़ किया था.
साढ़े बारह बजे छुट्टी होने पर घर पहुँची, अम्मी को इन्तिज़ार करते पाया,''जल्दी नहीं आ सकती थी.कितनी देर हो गयी.'' देर तो बिलकुल नहीं हुई थी. अम्मी बड़ा सा नाश्तेदान कपड़े से बाँध कर मेरे सर पर रख बोली,'' चल तेरा खाना भी साथ बाँध दिया है. वहीं खेत पर खालियो.''
खेत पर पहुँची, अब्बूजी रुष्ट स्वर में बोले, ''इतनी देर कहाँ लगाईं?''
--स्कूल से अभी आयी हूँ!''
---''और पढ़ाओ लौंडियों को!'' मुख्तार चच्चा की व्यंग्य-भरी आवाज़ सुनाई दी,''अभी तो रोटी मिल रही है. कल क्या पता बंद हो जाए.''
--''कोई बात नहीं भूखे रह लेंगे'' अब्बूजी ने जवाब में कहा और खाना खाने लगे. मेरी आँखों में आंसू देख निवाला छोड़ दिया, बोले,'' क्यूँ रो रही है?''
---''भूख लगी है.'' इस पर अब्बूजी ने गले लगाकर मुझे अपने साथ खाना खिलाया.
जिस खेत में पनीर लग रहा था वह ‘बंगरिया’ कहलाता था. जिसमे घुटनों-घुटनों तक भरे पानी में 'दलित' महिलाएं अपने पेटीकोट चढ़ाए पनीर लगा रही थीं. उनके बच्चे वहीं एक दूसरे पर पानी और कीचड़ उछाल कर लौट-पोट हो रहे थे. बारिश का कई दिन इन्तिज़ार करने के बाद, पानी दूर फूफा के रहट से लिया जा रहा था. अब्बूजी ने घड़िया उठा कर कहा, ''जा रहट से साफ़ पानी लिया.'' मैं पानी के 'बरह'(नाली) के किनारे-किनारे पानी जो कि घास पर शीशे की तरह चमक कर बह रहा था, को देखती जा रही थी. मुझे महसूस हुआ कि जैसे पानी ठहर गया हो और मैं चल रही हूँ. रहट पर फूफा के दोनों बैलों की आँखों पर पट्टी बंधी हुई थी, जो जुए में रहट के बीम से जुड़ कर रहट खींच रहे थे. लोहे की छोटी-छोटी बाल्टियों से पानी नाली में पलट रहा था. मैंने घड़िया पानी से भर कर एक तरफ रखी और नाली से मुंह लगाकर खूब सारा पानी पिया, मुंह नीचे होने के कारण फन्दा लग गया. बड़ी ज़ोरकी खांसी उठी... दूर परे खेत में बगुले चुग रहे थे...

उपरोक्त घटना के दो महीने के बाद....
जुमे का दिन था. आज छुट्टी जल्दी हो जाती थी. इस लिए अम्मी ने स्कूल ही नहीं भेजा था. मैं छोटे भाई को झूला झुला रही थी. अम्मी सुबह से ही परेशान थीं. गुज़री रात ओलों के साथ ज़ोरों से बारिश हुई थी. जिसने मूंजी(धान) को ज़मींदोज़ कर दिया था. उदासी और अफ़सोस के सबब आज हमारे घर खाना नहीं बना था. मैंने पूछा, ''क्या हो गया?''.... ''मुझ से क्या पूछती है?, अपने अब्बू से पूछो?" अब्बूजी नाराज़ होकर,'' बच्चों के सामने ऐसी बातें मत करो!,'' कहते हुए बाहर चौपाल चले गए. लेकिन मैं अम्मी से बज़िद होकर पूछने लगी, '' क्या बात है?'' अम्मी मुझे बहुत ध्यान से देखने लगीं, बोलीं,'' क्या तू इतनी बड़ी हो गयी है!!! खैर.... सुन तेरी पैदाइश से पहले की बात है. बी.डी.ओ. साहब आये थे हमारे घर, तेरे दादाजी से कहा कि सरकार गाँव में लड़कियों का स्कूल खोल रही है, अगर आपकी मर्ज़ी हो तो आपकी बहू मास्टरनी लग सकती है. यह सुनकर तेरे दादाजी बड़े रुष्ट और नाराज़ हुए व बी.डी.ओ. साहब से बोले जब हमारे घर की बहू-बेटियां घर के बाहर ही क़दम नहीं रखतीं तो हम क्या उनसे नौकरी करवाकर कमाई खाएंगे. मैंने तेरे अब्बूजी से बहुत मनुहार की कि अपने पिता से बात करें लेकिन वह हिम्मत न कर पाए और मेरी एक न चली. काश जब मुझे वह अवसर मिल जाता तो आज खेती के इस नास के वक़्त कुछ मदद तो कर पाती. '' उन्होंने एक लम्बी आह भर कर बात को विराम दिया.
भाग्य की बात है, उन्हें ‘घर की बीवी’ बनना ही बदा था..
बाक़ी आइन्दा!!
खुदा हाफ़िज़.



Trouble-shooting
नीरवता= soundlessness,quietness
कनिष्क महान के वंशवृक्ष से अपनी वंशबेल मिलती = उनका जातिसूचक नाम 'कसाना' था जिसको वह कनिष्क महान के कुषाण-वंश से अपभ्रंशित मानते थे.
उपकृत= obliged
बेंज़ीन के सूत्र की='बेंजीन' गैस की रासायनिक संरचना गोल होती है.
सामंजस्य= hormonise
प्रस्फुटन= to bloom
विशुद्ध राजनीतिक निदान purely political solution

Saturday, July 3, 2010

मेन इन ब्लेक

......उस दिन सुबह से ही मेरा मूड बहुत अच्छा हो रहा था और होता भी क्यूँ नहीं क्यूंकि हमारी पड़ोसन जो कि माध्यमिक विद्यालय में अध्यापिका हैं, ने अपने बच्चे की बर्थडे पार्टी में निमंत्रित किया था यह बात मैंने सोची भी कि चलो उन्होंने मुझे पार्टी में बुलाने योग्य समझा. बड़ी बेसब्री से शाम होने का इन्तिज़ार किया गया. मुश्किल्तमाम घड़ी ने रुकते-रुकते, चिढ़ाते हुए साढ़े छ: बजाये, मैंने फटाफट अपनी सोती बिटिया को जगाया, वह कुनमुनाई , 'बर्थडे पार्टी' मन्त्र उसके कान में फूँका, उठाकर उसको तैयार किया और खुद भी तैयार होने लगी. अब वही शाश्वत स्त्रीयोचित कन्फ्यूजन कि कौन सी पोशाक ज़ेब-ए-तन की जाए. आख़िरकार एक सेलेक्ट हुई और हम दोनों तैयार थे.
ठीक साढ़े सात बजे मैंने उनके फ्लैट की घंटी बजाई. मैडम ने चौंकते हुए दरवाज़ा खोलकर मुस्कुराने का उपक्रम करते हुए स्वागत किया, "आप तो बिलकुल ठीक टाइम पर पहुँच गयीं मिसेज़ फ़ारूक़ी! यही तो फ़ायदा है हाउस वाइफ होने का. कोई ज़िम्मेदारी नहीं जब दिल करे कहीं भी चल दो और एक हम हैं कि अभी कपड़े भी नहीं बदले. सी.एल.मिली नहीं, तीन बजे तो स्कूल से ही आयी हूँ,''वो पहनी हुई अपने पति की शर्ट और लोअर दिखाते हुए बोलीं. इस कटाक्ष को मैंने ख़ूबसूरती से द्रविड़ की तरह डिफेंसिव खेलते हुए उनकी हाँ में हाँ मिलाई क्यूंकि में इन्जोय्मेंट के मूड में थी.
साढ़े आठ बजे तक सभी इन्वाइटीज़ जिन में ज़्यादातर उनकी सहयोगी महिला टीचर्ज़ थीं, आ चुके थे. प्रत्यक्ष परिचितों से सीधे व अप्रत्यक्षों को परिचितों के माध्यम से अभिवादनों का आदान-प्रदान किया गया. अंतत: लेडी ऑफ द हाउस गोल्डन कलर की साड़ी में सज कर आ ही गयीं. साड़ी उन पर फब रही थी. म्युज़िक बज रहा था, बच्चे मज़ा कर रहे थे. यकायक मैडम के सेल की रिंग बजी, मैडम ने फ़ोन रिसीव किया व फोन करने वाले को फटकारना शुरू कर दिया. मुझे लगा कि शायद किसी विद्यार्थी को बुलाया है जो आने में मजबूरी ज़ाहिर कर रहा है. बाद में ज्ञात हुआ कि मैडम के पतिदेव फोन पर थे जो दस से पहले नहीं पहुँच पा रहे थे. काश कोई घर की बीवी ऐसी फटकार लगा पाती.... लेकिन
कव्वों के काएं -काएं करने से कहीं ढोर मरते हैं
. ( पतियों के समाज से गुस्ताखी मा'फ). तो केक की उम्र दस बजे तक बढ़ गयी. मैडम अपनी सासुजी को चाय बनाने को बोल कर बतियाने बैठ गयीं.
मैडम की कलीग मिसेज़ माधुरी शुरू हो गयीं." तुम्हारी सास तो बहुत अच्छी है. मुझसे अपने घर में एक घंटा भी नहीं काटा जाता. बड़ी बोर हो जाती हूँ." मैडम ने अपने सुर्ख लिपस्टिक लगे होंटों से बनी खीसें निपोरीं, " क्या कहती हो माधुरी, अरे यहाँ तो पार्टी मैं ऐसे लोग मौजूद हैं जो पूरी ज़िंदगी घर में गुज़ार सकते हैं." मैडम की इस फुलटॉस पर मैं आकुल (uneasy ) हो गयीं .
तभी दूसरी वर्किंग लेडी ने सदासुहागन प्रकरण 'काम वाली बाई' छेड़ा,'' यार तेरी काम वाली तो रेगुलर आती है. छुट्टियाँ तो नहीं मारती? "
--''काश ऐसा होता!, लेकिन मैं उसको छुट्टियों की सज़ा दे देती हूँ!'
--"क्या?'
--"जितने दिन वह नहीं आती, मैं गंदे बर्तन उठा कर सिंक के नीचे डाल देती हूँ और नया बर्तन निकाल लेती हूँ. अब वह दो दिन बाद आये या तीन दिन बाद, धोने उसी को पड़ते हैं. इस वजह से बहुत बर्तन हो गए है, लेकिन पौंछा मुझसे नहीं लगता.वह वो लगा देते हैं'
''ठीक कहती हो सुनीता,''मिसेज़ रंधावा ने ' सज़ा का नया आइडिया सरकाने के लिए' ग्रेटफुल होते हुए कहा,'' यह तो मैंने सोचा ही नहीं था,''
तीसरा पुराण बच्चों की फ़ूड-हेबिट का छिड़ा. मिसेज़ शर्मा ने शिकायती कम फर्मायशी ज्यादा, स्वर में कहा,''मेरे बच्चे तो जंक फ़ूड ही पसंद करते है. और घर में तो जल्दी-जल्दी बार- बार दाल चावल बनने से रोटी तो खाना ही नहीं चाहते, अब तो उनके पापा भी दाल-चावल बनान सीख गए हैं." इन वर्किंग-क्लास लोगों के वर्क की बातें सुन-सुन कर मैं बोर हो चली थीं.
लेडी ऑफ द हाउस मेरे मनोभाव पढ़कर आनंदित हो रही थीं. बोलीं,'' आशी, अगर प्यास लग रही हो तो फ्रिज में से पानी ले लो.'' प्यास तो क्या लगी थी वर्किंग-क्लास लोगों के वर्क से हटने के लिए मैं दूसरे कमरे में जहाँ फ्रिज था, पहुँची. फ्रिज खोलते ही फ्रीज़ हो गयी.. लातादाद कोकरोच अपने साम्राज्य की उद्घोषणा कर रहे थे .. मेन इन ब्लेक याद आ गयी, लगा दुनिया फतह करने के लिए एलियंस ने इस रेफ्रीजेरेटर को अपना ख़ुफ़िया ठिकाना बनाया है . मेरी त्राहि-माम पर सब लपक आये. भिन्न चेहरों पर भारत की अर्थव्यवस्था की भांति मिश्रित प्रतिक्रियाएं थी. मुस्कराहट, सुकून, अफ़सोस, विद्रूपता... मैडमजी के मुखारविंद का रंग उनके होंठों की लिपस्टिक से मैच करने लगा..
तभी मिस्टर मैडम ने प्रवेश लिया और एलियंस के संभावित आक्रमण से पहले ही मैडम का प्रकोप झेलना पड़ा. उसके बाद ही हेप्पी बर्थडे की रस्म पूरी हुई..
बाक़ी आइन्दा:
खुदा हाफ़िज़

Thursday, July 1, 2010

एक बार फिर नैनीताल

अपनी बेटी का चौथा बर्थडे मनाने इस बार हम नैनीताल गए. हम मतलब मैं , बिटिया, पतिदेव, देवरजी, देवरानीजी और उन दोनों के मोनू एंड सन्नी.
देवरानीजी का स्टेनडर्ड 'घर की बीवी' से ऊंचा है क्यूंकि वो स्कूल अध्यापिका हैं. चार जून की रात को दिल्ली से चले. रात को अपनी बहिन के यहाँ हसनपुर रुके. सुबह तड़के ही रवाना हो गए....
हालांकि हम लोग मुरादाबाद से ही ता'ल्लुक़ रखते हैं. लेकिन मुरादाबाद बाईपास के बनने से कब मुरादाबाद का क़दीमी शहर निकल गया पता ही नहीं चला. इस सफ़र से पहले कभी छात्रजीवन में जाना हुआ था कुमायूं की तरफ तब तो मुरादाबाद को क्रास करने में ही एक घंटा लग जाता था. धन्यवाद भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण को... शुक्रिया देवरजी की नई ज़ेन एस्टिलो का भी जिसको दोनों भ्राता बारी बारी मज़े से चलाते रहे ...
हल्द्वानी से निकलते ही चढ़ाई शुरू हो जाती है. चढ़ने वाले वाहन सवारों के मुंह पर उत्साह था व उतरने वाले मायूस लग रहे थे शायद सोच रहे थे कि फिर से जिस्म झुलसाने वाली गर्मी शिद्दत से इन्तिज़ार कर रही है...
हम बड़े, छोटों को, जिनका होश में यह पहला पर्वत-दर्शन था, समझाने लगे कि यह देखो पहाड़ शुरू हो गए. दिल्ली के बच्चे जो कि , सिर्फ टीवी में ही प्राकृतिक दुनिया का दर्शन करते हैं, ने उनके पहाड़ होने से ही इनकार कर दिया, रीज़न बिहाइंड दिस .... बिटिया अपने छोटे से मस्तिष्क में पोगो चेनल के 'छोटा भीम' कार्यक्रम से संचयित व समाहित ज्ञान के आधार पर बोली " पहाड़ी सफ़ेद होती है यह तो बिराउन है." मोनू भाई आदतन खामोश रहते है.. मुस्कुरा दिए.. लेकिन एक्सपर्ट कमेन्ट सन्नी भाई का आया." अलीना को कुछ नहीं पता. सफ़ेद पहाड़ तो कार्टून में होते हैं. पहाड़ो पर बर्फ पड़ती है झरने होते हैं. जिसमें कृश नहाता है.."
किस्सा मुख़्तसर यह कि रुकते रुकाते करीब पौने बजे हम ज्योलीकोट, नैनीताल से पंद्रह किलोमीटर पहले, होटल सन-राइज़ पहुंचे जहाँ बुकिंग दिल्ली से करवाई हुई थी. नहा-धोकर, नाश्ता कर फिर नैनीताल के चले. मौसम सुहावना था .. लगता था कि लाखों फ्रिज ग़लती से खुले रह गए है..
नैनीताल पहुंचे. उत्तराखंड पुलिस मुस्तैदी से अपना काम कर रही थी. लेकिन वाहनों की बहुलता इतनी थी कि हमें पार्किंग के लिए जगह ढूँढने में ही करीब डेढ़ घंटा लग गया. सरोवर नगरी अपनी अनुपम छटा बिखेर रही थी, बादल चेहरों को छूते महसूस हो रहे थे. नैनी झील में पहाड़ प्रतिबिम्बित हो रहे थे. सैलानियों की भीड़ का यह आलम था कि कन्धों से कंधे छिलते जाते थे. यदि तापमान को दरकिनार कर दें तो लगता नहीं था कि हम दिल्ली के जनपथ या सरोजिनी नगर मार्किट से अलग घूम रहे हों. सर्वप्रथम बच्चों की बोटिंग की जिद के आगे झुका गया. नाव वाला जिसका नाम 'चन्दन' मालूम हुआ ने हमें टिकिट खिड़की से पहले ही लपक लिया-- एक सौ साठ रुपए प्रति नाव रेट था. हमारी फेमिली का 'कुंदन' नाख़ुदा हुआ व देवरजी का खानदान दूसरे नाववाले के सुपुर्द हुआ.

नाव में बैठने से पहले हमें 'जीवन -रक्षक' (लाइफ सेविंग) जैकेट पहनने को दी गयीं जो माप/परिमाण में समाजवाद की झंडाबरदार थीं मतलब मुझको ढीली आयीं और पतिदेव जो कि माशा'अल्लाह तंदुरस्ती से अगले सिरे पर हैं, को फंसी-फंसी आयी. पतिदेव ने अपनी व्यवसाय-सुलभ जिज्ञासा-शमन व ज्ञानवर्धन हेतु 'कुंदन' जो कि 'बिनसर' की तरफ का रहने वाला था, से बातचीत शुरू कर दी. कुंदन टूरिस्ट सीज़न में पिछले छह साल से नाव खे रहा है, बाक़ी दिनों में मजदूरी करता है. एक फेरे के उसको अस्सी रुपए मिलते हैं शेष कुमायूं पर्यटन विकास निगम व बोट-मालिक में तक़सीम होते हैं. सीज़न में पांच फेरे मिल जाते हैं लेकिन इस बार कुम्भ स्नान पड़ने से दो फेरों के लालें हैं..पतिदेव थोड़े जज़्बाती होकर उदास हो गए...लेकिन हम मिश्रित अर्थव्यवस्था में रहते हैं. जहाँ पूंजीवाद का विरोध करना हो, वहां इश्तराकी (सोशलिस्ट) हो जाइए वरना, अमरीका तो रोल माडल है ही हमारी next -gen का.. कुंदन धीरे-धीरे अपनी अपनी पुष्ट मांसपेशियों और जज़्बे के दम पर '250' नम्बर नाव खेता जा रहा था.. चहुँओर प्राकृतिक पर्वतीय सौंदर्य अपने अप्रितम रूप से मनोहारी छटा बिखेर रहा था. कुम्भ स्नान पड़ने का अवसाद बातों-बातों में फिर कुंदन के चेहरे पर दरक आया.पतिदेव ने ध्यान भटकाने की नियत से नाव की फ़िज़ियोलोजी व एनाटोमी के बारे में सवालात शुरू किये जिससे मालूम हुआ कि ये नावें 'तून' नामक विशेष लकड़ी से बनती है.जिसमें 'हड्डी' अर्थात स्टरक्चर शीशम की लकड़ी से बनता है. तांबे की पत्री/तार से फिटिंग व व 'साल की राल' से वार्निश की जाती है. फर्श चीड़ की लकड़ी से बनता है.. नाव की कीमत परमिट(जो तीस-चालीस हज़ार के बीच पड़ता है) वगैरह को मिलाकर , दो लाख तक पड़ती है. मैं दिल्ली के तिपहिय्या TSR की कीमत का तुलनात्मक अध्ययन करने लगी..वहां भी परमिट... यह है हमारी Mixed Economy !!


नैनी झील के किनारे माल रोड की विपरीत दिशा में पावर हाउस सा स्टरक्चर था जिसके बारे में कुंदन ने बताया यह कम्प्रेसर हाउस है.जिसके द्वारा झील की मछलियों को आक्सीजन की आपूर्ति की जाती है.. काश हमारी दिल्ली में भी हमारे लिए आक्सीजन-आपूर्ति हेतु ऐसा कोई स्ट्रक्चर लग जाता. उससे आगे 'रुद्राक्ष हनुमान' मंदिर था. हिन्दुस्तान के सभी मज़हबों के प्रतीक नैनी झील के इर्दगिर्द साक्षात देखे जा सकते है.
'नौका-विहार' के बाद फेंसी-ड्रेस में बच्चों का फोटो सेशन हुआ. तभी world is a global village को चरितार्थ करते हुए पतिदेव के सहपाठी नसीम अहमद साहब अपने परिवार के साथ घूमते मिल गए. फ़ारूक़ी साहब का मुखारविंद उत्साह से अभिभूत हो गया. यह जानकर मुझे सुकून मिला कि नसीम साहब की भार्या भी ''घर की बीवी'' ही निकलीं ..
बाकी आइन्दाह..
खुदा हाफ़िज़

Monday, June 28, 2010

घर की बीवी का परिचय

बचपन से मेरे मन में एक ही प्रश्न उठता रहा है क्या पूरी ज़िंदगी कोई भी स्त्री एक पल के लिए भी अपने लिए जीती है? जिसका जवाब मुझे आज तक नहीं मिला है.. शादी से पहले मैं जो कुछ भी करती थी या करने की इच्छा दिल में होती थी वो भाई-बहिन-मान-बाप के लिए वो भी मान-मर्यादा का विशेष ध्यान रखते हुए.. अगर कभी कोई अच्छा कार्य किया तो लोग कहते, अरे!! देखो फलां खां की बेटी ने कॉलिज टॉप किया है और मन था कि उसी से संतुष्ट हो जाता था क्यूंकि छुटपन से ही मस्तिष्क की धुलाई(ब्रेन-वाशिंग) इस तरह कर दी जाती है की क्यूँ क्या का सवाल ही नहीं उठता .. अब जब से शादी हुई तो सोच को और विस्तार मिला वो यूँ कि अब एक और उपाधि मिल चुकी है मैडम फ़ारूकी... ये कोई नहीं जानता कि आशकारा ख़ानम कहाँ गयी बेचारी !!!! अब मैडम फ़ारूकी को दिन भर यह सोचते गुज़र जाता है उनके किसी एक्ट से मि. फ़ारूकी नाराज़ न हो जाएँ या उनको किस तरह खुश रखा जाए...
इसके अतिरिक्त एक तमगा और प्राप्त हुआ जो कि हमारे परिचय का विशेष हिस्सा है.. फ़ारूकी सहा कहीं लेकर जाते हैं तो क्या बोलते है..."इनसे मिलिए मेरी वाइफ हैं.जवाब में सवाल होता है..जी अच्छा ! क्या करती हैं?" फ़ारूकी साहब मुस्कुराते हुए (सकुचाने की एक्टिंग करते हुए) जवाब देते हैं हाउस-वाइफ हैं. अब मैं कन्फ्यूज़ !!! अरे मैं किसकी पत्नी हूँ हाउस की या फ़ारूकी साहब की और आगे मेरा नाम भी पूछने की ख्वाहिश सामने वाला ज़ाहिर नहीं करता.. क्यूंकि उनकी नज़रों में परिचय पूर्ण हो चुका है हाउस-वाइफ शब्द-युग्म कानों में पड़ते ही उनका मज़ीद इंटरेस्ट जो ख़त्म हो गया.. क्यूंकि हाउस-वाइफ का शेड्यूल सभी को पता है. पूछे क्या और बताएं क्या? संभावित डिस्कशन तो वर्किंग लोगों के बीच ही हो सकता न... बाक़ी आइन्दाह
खुदा हाफ़िज़