मिस्टर फ़ारूक़ी को मैं 'चलती फिरती बुक-शेल्फ' कहूँ या और कोई संज्ञा दूँ, दिमाग़ अब तक सोच नहीं पाया. उनके बारे में आज तक जो मैं जान पायीहूँ वो इस उम्मीद में आप के साथ शेयर कर रही हूँ कि संभवत: आप ही उनके लिए यथोचित विशेषण सुझा सकें.
परिणय-सूत्र में पिर-कर इनके जीवन में प्रवेशित होकर अवतरित होने से पूर्व मैंने लोगों से सिर्फ,इनकी चर्चा सुन रखी थीं कि बातें कम ग़ुस्सा ज़्यादा करते हैं... सबसे बड़ी बात यह कि पढ़ते बहुत हैं.......जो कि बिलकुल सत्य पाया. दिल्ली के सरकारी फ़्लैट पर जीवन की आवश्यक सभी वस्तुओं के बीच किताबों की अधिकता थी. यहाँ तक कि किचन व टॉयलेट में भी पुस्तकें विद्यमान थीं. पूछा तो जवाब मिला कि किताबें मेरा पहला प्यार हैं और किताबों में भी सुरेन्द्र मोहन पाठक के जासूसी नॉवेल ही ज़्यादा थे.
साधारणत: 'सुरेन्द्र मोहन पाठक' एक नाम हो सकता है, हिंदी पढने वालों के लिए यह एक जासूसी उपन्यास लेखक का नाम है... परन्तु मेरे लिए.. ''आई डोंट नो व्हाट आई से....'' खैर..... बात उन दिनों से शुरू करनी पड़ेगी जो किसी भी महिला के किये सबसे रूमानी और महत्वपूर्ण समय होता है व जिसको वह जीवन भर सहेजकर रखना चाहती है.हमारे हनीमून के लिए 'उन्होंने' (घर की बीवी के पास शुरू के दिनों में अपनी ख्वाहिश ज़ाहिर करने की कम ही गुंजाइश होती है) संसार की प्राचीनतम नगरी को चयनित किया.मुझे कारण बताया गया था कि दैहिक प्रेम अस्थाई होता है जबकि बौद्धिक एवं आध्यात्मिक प्रेम सात्विक व शाश्वत होता है जिसको बनारस व सारनाथ में फ़ील किया जाएगा, इसके इलावा इनकी, इनके बड़े भाई (बड़े भाई जैसे नहीं कहना चाहूंगी) श्री विनय श्रीवास्तव के परिवार से मिलाने की भी ख्वाहिश शामिल थी .
यह इनके साथ मेरी पहली ट्रेन-जर्नी थी. काशी-विश्वनाथ एक्सप्रेस में यूँ तो हम दोनों का साथ-साथ रिजर्वेशन था लेकिन, कोई भी व्यक्ति विश्वास नहीं कर सकता था कि मैं इनके साथ हूँ. रीज़न बिहाइंड दिस यह सामने वाली सीट पर बैठे सुरेन्द्र मोहन पाठक के नॉवेल ' धमकी ' में तल्लीन थे और मैं ताज़ी-ताज़ी दुल्हन के लिबास में लदी-फंदी व मेक-अप में लिपी-पुती दूसरी सीट पर बैठी खिड़की के शीशे से बाहर झांकती हुई सोच रही थी आखिर इस नॉवल में नई दुल्हन से अधिक रुचिकर ऐसा क्या है, जो ये एकबार भी मेरी तरफ देखने की तकलीफ नहीं कर रहे थे, बात करने की बात तो बहुत दूर की बात थी(तब मैंने क़सम खाई कि सुरेन्द्र मोहन पाठक को पढ़कर ज़रूरदेखूंगी, हालांकि इस से पहले एक दो नॉवेल ज़रूर पढ़ रखे थे, परन्तु सामाजिक, क्यूंकि जासूसी नॉवेल "ए" सर्टिफिकेशन में आते हैं). अरेंज्ड-मैरिज होने की वजह से मैंने पहले इनको नहीं देखा था इस लिए कॉमन-प्लेस में बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी.इस फ़िल्मी 'अकेलेपन की सिचुएशन' में मैं चाहती थी कि बात करने की पहल ये करें..समय कटे और सफ़र आसान हो जाए... पर कैसे?? कि ट्रेन रुकने लग गयी और मुझे बहाना मिल गया.
------" सुनिए कौन सा स्टेशन आ रहा है?''
यह प्रश्न तीसरी बार रिपीट करने पर जवाब मिला,'' पढना आता है. बाहर देखो, शायद कहीं पर लिखा होगा.'' इतना कड़ुआ जवाब सुनकर मेरी आँखों में आंसू भर आये और मैं विंडो-ग्लास से मुंह सटाकर चक्षु-मार्ग से ग़ुबार-ए-दिल निकालने लगी. ट्रेन रुकी, रुक कर फिर चल पडी गंतव्य की ओर... और मैं हिचकियों को दबाये, अश्रु-पूरित आँखों से समान्तर पटरियों को निहारती रही कि एकदम से किसी ने मेरे सर पर हाथ रख दिया, पलटकर देखा तो सामने की सिंगल सीट वाली आंटी थीं, पूछ रहीं थीं,''बेटी किसके साथ हो? कोई छूट गया क्या?"
मैं कुछ जवाब देतीं कि पतिदेव नॉवेल से मुंह हटाकर बोल उठे,''आंटी आपको कुछ चाहिए? यह मेरे साथ हैं!''
आंटी सकपका गयीं, खिसियाहट छुपाकर बोलीं,'' साथ हैं तो साथ बैठोन, नयी दुल्हनिया हैं, कुछ बोलो-बतियाओ, देखो कैसे आँखें लाल कर लींहैं.''
पतिदेव ने कुछ रियलाइज़ कर पास आकर बैठने का उपक्रम करते हुए पूछा,'' भूख लगी लगी है, कुछ खाओगी क्या?"
रुंधे कंठ से मैंने उत्तर दिया,"नहीं.''
------''तो ठीक है. सो जाओ थोड़ी देर के लिए. ओबवियस्ली, लड़कियों को मायके की याद तो आती ही है . तुम्हें नींद आ रही है. आँखें लाल हो रहीहैं. सोकर फ्रेश हो जाओगी,'' कहकर अपने कर्तव्य-बोध की इतिश्री कर फिर 'धमकी' में गुम हो गए.
ट्रेन शनै:शनै: मंजिल की ओर बढ़ी जा रही थी.. मैं सोच रही थी कि राहे ज़िंदगी भी इसी तरह ''दूसरी पटरियों'' को निहारते न गुज़रे. मगर यह डर बनारस पहुँच कर किसी हद तक कम हो गया .
विनय भैय्या स्टेशन पर आये थे लेने, जिस से हम हम लोकल ऑटो और रिक्शे वालों के 'अतिथी देव: भव:' के रिसेप्शन से बच गए. घर 'शिव-पुर' में था. बहुत ही स्वीट लोग थे. बड़ी दीदी से तो बात करके ऐसा महसूस हुआ था कि मन पर ओस की शीतल फुहार पड़ रही हो. उन्होंने फारूकी साहब की बहुत तारीफ़ की "बहुत अच्छा लड़का है सुहैब . मन तो बालक सामान निश्छल है उसका .''.मैं चाहती थी कि वो सारे काम छोड़ कर बस मेरे नज़दीक बैठी रहें. पहले दिन थकान उतारी गयी. फ़ारूक़ी साहब ने 'धमकी' ख़त्म करके विनय भैय्या को हस्तांतरित की ...वह भी पाठक साहब के मुरीद थे..
अगले दिन हम सारनाथ गए. सारनाथके बारे में पढ़-सुन रखा था कि महात्मा बुद्ध ने ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात प्रथम बार ''धर्मोपदेश'' दिया था. लगा कि विवाह=ज्ञान-प्राप्ति के उपरान्त प्रथम उपदेश हेतु फ़ारूक़ी साहब यहाँ लाये हैं मुझको.
विनय भैय्या ने बताया कि सारनाथ ,''सारंगनाथ'' शब्द(जिसका शाब्दिक अर्थ lord of deer ) का अपभ्रंश है. बोधिसत्तव ने मृगावतार के दौरान , फाख्ता को मारने को तत्पर राजा को बदले में अपना जीवन अर्पित करदिया था, राजा ने प्रेरित हो कर तब इस क्षेत्र को मृगों के लिए संरक्षित करदिया था. …. हमने वहां पर अपने देश (भारत देट इज़ इण्डिया) का राजचिन्ह भीदेखा.
अगले दिन हम लोग यानी मैं, पतिदेव, विनय भैय्या व उनकी धर्मपत्नी (जो उस समय घर की बीवी थीं मगर अब ग़द्दारी कर प्रशिक्षित स्नातक अध्यापिका बन गयी हैं) विश्वनाथ मंदिर गंगा- घाट पर गए. यूँ तो गंगा नदी मेरे मायके(गढ़-गजरौला) से सिर्फ़ नौ-दस किलोमीटर दूरी पर ही है. परन्तु यहाँ पर गंगा को साक्षात 'तारिणी' के रूप में देख रही थी.. 'मणिकर्णिका' घाट देखा..महाराजा हरिश्चंद्र की कम उनकी पत्नी और बेटे की ज्यादा याद आयी. भारत का जातिवाद इन घाटों पर भी अपने अक्षुण रूप में विद्यमान पाया . नौका विहार किया. 'सतयुग' से निकल कर यतार्थ में आये. .. खूब सारी सीढ़ियों को चढ़कर साड़ियों की दूकान पर पहुंचे. पतिदेव ने अनुदेश दिया ,''चलो एक साड़ी पसंद करलो.''
मैंने आदेशानुसार एक साड़ी पसंद कर ली. इन्होने सेम टाईप की पांच साड़ियाँ पैक करने को कहा.
दूकानदार ने असमर्थता ज़ाहिर की,'' बाबूजी ऐसी तो तीन ही बचीं हैं.''
ये बोले, ‘’तो एक ही क्वालिटी की पाँच साड़ियाँ पैक कर दें.''
मैंने हिम्मत कर हलक़ से 'लेकिन' शब्द उच्चारित किया, उत्तर मिला ,'' एक तुम्हारी, एक अम्मी(सासुजी) की, एक भाभी(जेठानी)की, और दो बहनों(ननदों)की.....''
अगले दिन पिक्चर जाने का कार्यक्रम बना. घर के बच्चे जैसे इस प्रोग्राम ही का इन्तिज़ार कर रहे थे. ''लगान'' और ''ग़दर'' की बीच प्रतिद्वंद्विता थी. मतलब यह कि देशभक्ति पर क्रिकेट भारी पड़ा. फिल्म देखी बहुत ही अच्छी थे.. हम लोग ही कुल मिलाकर पंद्रह गए थे देखने जबकि आमिर खान बेचारा बड़ी मुश्किल से अंतिम एकादश बना पाया था.
वह पांच दिन कैसे कटे, पता ही नहीं चला.. आज वापसी थी. मैं पैकिंग कर चुकी थी. मैंने जानबूझकर ''धमकी'' को वहीं दीवान के तकिये के नीचे सरका दिया था . माहौल फ़िल्मी रूप से भावुक हो चला था. तोहफों का आदान-प्रदान हो चूका था. तभी दीदी ने नॉवल मेरे हाथ में थमा दिया, लो बेटा यह यहीं छुट रहा था.. भारी मन से 'धमकी' बैग में ठूंस दी.
अंतत: ट्रेन में अपनी रिज़र्व्ड सीटों पर अधिकार के उपरान्त बनारस-स्पेशल कुल्हड़ वाली चाय से अंतिम बार रसावादन किया गया. गाड़ी खुलने में (बनारसी ज़ुबान में गाड़ी छूटना नहीं, खुलना कहा जाता है) कुछ समय था. इन्होने मुझसे बड़े ही अपनत्व से पूछा,''आशी तुम्हें यहाँ आकर अच्छा लगा न.'' मैंने उनको हैरत से देखते हुए अपनी गर्दन हाँ में हिलाई. इस मुस्कुराहट और अपनत्व पर मैं निसार होगयी. चलो अब ''धमकी'' के आतंक से तो मुक्ति मिलेगी.. तभी ……
हमारी सामने वाली शायिका पर एक पर्दा-नशीं दोशीजा आकर क़याम-पज़ीर हुई. बिलकुल ''मेरे महबूब'' वाली साधना-स्टाइल सा गेट-अप था. फ़ारूक़ी साहब की तवज्जो उधर हो गयी. मोहतरमा का पूरा जिस्म बुर्के से ढंका हुआ था. चेहरे पर भी नक़ाब थी जिस से सिर्फ आँखें नुमायाँ हो पा रहीं थीं. बड़ी ही मसहूरकुन निगाहें थीं जनाब की. जिसका जादू शायद फ़ारूक़ी साहब पर और आस-पास पर छा रहा था.फ़ारूक़ी साहब चाय पीना भूलकर मुझसे धीमे से बोले,'' कितनी खूबसूरत है!जैसे शेहरे-ख्वाबां में गज़ाला ' लगता है कि 'तिलिस्मे-होशरुबा' की हीरोइन उतर आयी हो.'' काश दीदार हो जाए' इन्होनें बिलकुल हातिम-ताई स्टाइल में डायलोग डिलीवर किया.
मैं जल-भुन गयी, लेकिन एहसास न होने दिया. ट्रेन के आगे बढ़ने के साथ साथ इनकी बेचैनी और मेरी स्त्रीयोचित-जलन भी बढ़ती जा रही थी. यूँ तो दिखावे के लिए फ़ारूक़ी साहब ने अखबार ले रखा था. मगर नज़र बार-बार उधर ही ही चली जाती थे. बोले,शायद अकेली हैं!''
मैंने बनकर पूछा, ‘ कौन? आपकी बहनजी." खिसियाकर फारूकी साहब मुस्कुरा दिए. मज़ीद बोले, ''अरे अख्लाकन तो पूछना चाहिए कि किसी चीज़ की ज़रुरत तो नहीं है?'' मैंने दूसरी तरफ़ मुंह कर उस वक़्त को कोसना शुरू कर दिया जिस वक़्त इस हातिमताई की अम्मा ने कम्पार्टमेंट में क़दम-आराई की थी. मोहतरमा भी इस स्थिति से खूब आनंदित हो रहीं थीं. .
रात हो गयी. आँख लग गयी. आँख खुलने पर पता चला कि गाड़ी ग़ाज़ियाबाद से निकल रही है. मोहतरमा की नक़ाब बदस्तूर थी.फ़ारूक़ी साहब की मायूसी से मुझे अंदाज़ा हो चला था कि 'तिलिस्मे-नक़ाब' बरक़रार है.
गाड़ी अपनी रफ़्तार कम कर प्लेटफार्म के साथ रेंगने लगी थी. सहयोगी यात्रियों ने शालीनता, सभ्यता आदि संस्कारों से अपने आप को अलग कर आगे निकलने की होड़ शुरू कर दी थी. कुछ अतिसुसभ्य पुरुष 'अनजान' होकर सीटों के बीच खड़ी महिलाओं से स्पर्श-सुख की अनुभूति करने में प्रयासरत थे.
खुद फ़ारूक़ी साहब का भी लगता था उतरने का कोई इरादा नहीं था. हारकर पूछा,'' उठना नहीं है क्या?''
‘’अरे उठ जायेंगे!'' मैडम पर चोर नज़र डालते हुए उन्होंने कहा,'' अभी तो और भी लोग बैठें हैं.'' मैं तिलमिलाकर रह गयीं.
मोहतरमा के एकदम सामने बैठे सज्जन ने ऊपर वाली बर्थ से अपना बैग उतरना चाहा, हाथ उनके ऊपर और दृष्टि मैडम पर थी. ब्रेन ने मल्टी-टास्किंग में सफल होने से मना कर दिया. परिणामस्वरूप बैग उनके हाथ से फिसल गया जिसको उन्होंने थामने का सिंसियर प्रयास किया. लेकिन बैग भी 'पुरुषवाची' था. मैडम का नक़ाब साथ नीचे ले आया.........
फिर…..
‘’वक़्त थम सा गया. नब्ज़ रुक सी गयी.'' क्या वर्णन करूँ? कुफ्र टूटा खुदा-खुदा करके , मोहतरमा का नूरे-मुजस्सिम सामने था. उपस्थित पुरुषों एवं खुद मोहतरमा की हालत देखने लायक थी. अल्लाह मुआफ़ करे! क्यूंकि आदमज़ात 'अशरफ़ुल-मख्लूकात' है..मैडम का मुखारविंद तिलिस्म वालें कथानकों की भांति अभिशप्त नायिका जैसा निकला था. 'मुन्नी-लाल-चुन्नी' वाली कहानी का भेड़िया नक़ाब के भीतर छुप कर बैठा था. ठोड़ी पर बाल लटक रहे थे. हल्की-हल्की मसें भी भीगीं हुई थीं. ऊपर के अगले दो दाँत होटों से बाहर निकलने को बेताब थे.. ''तिलिस्मे होशरुबा'' फ़ारूक़ी साहब का ‘होश-उड़ा’ चुका था.. उनकी शक्ल देखने लायक थी.
मेरा हंसी के मारे हाल बुरा था. सफ़र की साड़ी कुढ़न व थकन उतर चुकी थी. ये सफ़र ज़िंदगी का यादगार सफ़र है...
बाक़ी आइन्दा.
खुदा-हाफ़िज़.
मुश्किल-कुशाई == trouble shooting
यथोचित विशेषण = apropriate/specific name
परिणय-सूत्र = nuptial knot
दैहिक प्रेम = physical affection
सात्विक व शाश्वत = pure & eternal
बौद्धिक एवं आध्यात्मिक = intellectual & spiritual
चक्षु-मार्ग से ग़ुबार-ए-दिल= dust of heart through way of eye
अश्रु-पूरित = full of tears
कर्तव्य-बोध की इतिश्री completion of dutifulness (sattire)
शनै:शनै: slowly
हस्तांतरित transferred
प्रशिक्षित स्नातक अध्यापिका TGT trained graduate teacher
अक्षुण intact, uninterrupted
निसार = क़ुर्बान
दोशीजा = unmarried girl
क़याम-पज़ीर = बैठ गयी
मसहूरकुन = fascinating
शेहरे-ख्वाबां में गज़ाला a deer-eyed in dream-city
'तिलिस्मे-होशरुबा' = an old urdu epic of awadh region
स्त्रीयोचित = womanlike
अतिसुसभ्य = ultracultured
स्पर्श-सुख की अनुभूति = feeling of touching
पुरुषवाची = masculine gender
आदमज़ात 'अशरफ़ुल-मख्लूकात'= the human is superior among of all creatures
'मुन्नी-लाल-चुन्नी' वाली कहानी का भेड़िया = इस बाल कथा में एक भेड़िया औरत के कपड़े पहन कर मुन्नी लाल चुन्नी को खाने लिए छद्म वेश में बैठ गया था.
मुखारविंद= face
अभिशप्त = cursed
Namastey Ashkara Bahbhi ji,
ReplyDeletesabse pehle tau hum apko bahut bahut badhai dete hai itna umdda blog likhney ke liye. hum tau apke follwer kum aur fan jyada ho gaye hai.
aaj pehli baar apka blog padda, itna accha lugga ki tarif ke liye shabado ki kummi hai....Itna badiya andazei byan, Hindi bhasha Ka itna achha gyan aur ati sundar shabdo ka istemaal, apki baat biti ko aisa byan kar rha hai, ki humey bhi apne gujre din yaad aa rahey aur shayad yeh sab kisi naa kisi roop mein hum sab ki zindagi mein hua tha....
Farookhi Sahab ki shararto aur unke andar chippey ek bahut hi nayab inssan ko apney itni bakhubi se byan kiya ki, humey inspiration milti hai ki humra accharan ur byawahar gar un jaisa ho tau zindagi kitni hunstey kheltey gujjar jayegi.
Philhaal hum shabdo ko aaj yahi viraam dete hai aur phir se kahenge ki apki Kosis achhi thi aur ab apki pakad mazboot hai , isey kamzor naa honey de aur isi tarah apne man ki kathi ko badaye chaley, hum sab apke saath hai.
Apke Shub Chintak
Sujata & bhai shib
@ sujata
ReplyDeleteप्रिय सुजाताजी! नमस्कार!
धनात्मक टिप्पणी के लिए बहुत धन्यवाद.
वाह बाजी, किस दिलचस्प अंदाज़ से आपने इस सफ़र को यादगार बना दिया, बहुत खूब...
ReplyDeleteबस ज़रा फ़ारूक़ी साहब से बचके रहना..अरे भाई आपने उनकी पोल जो खोल दी है.
बहुत खूब...
ReplyDeleteultimate sansmaran likha aapne, no doubt dil khush ho gaya.
ReplyDeleteaur jaha jaha pe kataaksha karna chaahiye the aapne bakhubi kiya hai.... pahle bhi aapko padha tha, lekin ye post to vaqai ultimate lagi, yun kahu ki khushkittai....
अशकारा बहन,
ReplyDeleteये मुसलसल दूसरा कमेंट है आपकी दूसरी पोस्ट पर... आपके सफरेबनारस का मज़ा इसलिए भी आ गया कि आप वहाँ श्रीवास्तव साहब की मेहमान नवाज़ी में थीं... हम भी कायस्थ हैं जिनके लिए मरहूम उस्ताद राही मासूम रज़ा फ़रमा गए हैं कि कायस्थ आधे मुसलमान होते हैं.. ख़ैर बंदा तो इन सब शगल से लाईट ईयर दूर है... इस बार फिर आपकी क़िस्सागोई के मुरीद हो गए हम..सुरेंद्र मोहन पाठक को पढने का इत्तेफाक़ तो कभी नहीं हुआ..अलबत्ता हमारी अम्मी जान, जो घर की बीवी रहीं ताउम्र और अदब से उतनीही दूर जितने लाईट इयर दूर मैं मजहबी बातों से, इब्ने सफी बी.ए. की ज़बर्दस्त फैन रही हैं... और इस नशे का अंजाम तो आपने दिखा दिया, लेकिन एक इत्मिनान रहा कि नशा काफ़ूर हो गया वापसी पर...बहुत मज़ा आया!!
सलिल
ये वर्ड विरिफिकेशन का नक़ाब हटा दीजिए, माशा अल्लाह, आपके पोस्ट को इसकी ज़रूरत नहीं..
@ shadab,vermaji & tripaathiji
ReplyDeleteShukriya bahut-bahut.
Sanjeet Tripathi ji
ReplyDeleteThanks a lot.
Farooqi bhai to 'mashaallah'..... hai, lekin wapsi me naqab wali aurat par aapki (gharkibiwi padhi likhi) jalan kucch jayada haawi hai, jaisa ki aapki mishal se lagta hai. Safarnama aapne likha to accha hi hai lakin bhasa (urdu,english,hindi)par pakadh dikhane or sikhane par jayada concentrate kia hai. Seedha 2 likhte to jayada dilchasp or asardar hota, jaisa aapne 'Bachpan' me likha hai.
ReplyDeleteMuafi ke saath
Allah Hafiz
mujhse to kuchh kahaa hi nahin jaa rahaa hai...
ReplyDeleteSensation hai bhabhi ji. Ab sabhi bhabhi kah rahe hain to ham hi peechey kyun rahein. Bahut hi badiya. Mere khyal se badiya sirf wo hota hai jo bore na kare, jise aap shuru se aakhir tak aaraaam se padh lein. Yeh aisa hi hai. shukriya.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDelete@ Anis
ReplyDeleteअनीस भाई
बेबाक कमेन्ट के लिए दिली शुक्रिया.
दरअसल लिखते वक़्त जिस जुबां में सोचती हूँ वही लिखा जाता है. मैं पहले ही अर्ज़ कर चुकी हूँ की मैं 'लेखिका नहीं हूँ, सिर्फ हालत पर अपनी ओब्ज़ेर्वेशन उतारती हूँ. बराय मेहरबानी पढ़ते रहिय्येगा.
@ भूतनाथ
ReplyDeleteभूतों के नाथ जी
बोलती तो आपके आगे बंद हो जाती है....
कृपया कुछ उचरिये.. मानवजाति के लिए..
@ Pawan
ReplyDeleteThank you very much.
फिर एक बढ़िया यात्रा वृतांत ! दिल से लिखा और शब्दों के जाल में कस के पिरोया हुआ, साथ ही एतियासिक और सामयिक जानकारी समेटे हुए. सच कहू तो सबसे अनोखा और नवीन पहलू है -शब्दों का परिभाषित किया जाना है, जो कम से कम मेरे जैसे साहित्य में पिछड़े व अविविकसित पढ़ाकू को ज्ञान व प्रेरणा दे रहे है.
ReplyDeleteआपका प्रयास सराहनीय है. अगली किस्त का बेकरारी से इंतज़ार रहेगा.
आपका एक-एक आलेख पढ़ा और आपका प्रोफाइल भी.
ReplyDeleteबेहद ही दिलचस्प महिला आप लगीं.
ऐसे ही लिखती रहिये.
आपकी लेखन शैली अद्भुत है. आपको पढता रहूँगा....हाँ, मगर हिन्दी वाला अर्थ भी बताने का कष्ट करिये.
आपने उर्दू और अंग्रेजी में अंत में अर्थ स्पष्ट करने का प्रयास किया है यह अभूतपूर्व शैली दिखी है. जो कि अत्यन्त प्रशंसनीय है.
बस अर्थ में हिन्दी भी लिख दें तो लुत्फ़ बढ़ जाएगा.
पुनः बहुत-बहुत शुभकामनायें.
आपकी यह शैली हम सभी के शब्दकोष और ज्ञान में अनायास ही वृद्धि कर रही है, जिसके लिये आप बधाई की पात्र हैं. :-)
ReplyDeleteआपका नाम तो याद नहीं रहेगा क्योंकि बड़ा ही विचित्र सा है. (नहीं...नहीं, अच्छा है, पर इसका क्या मतलब है, उर्दू नहीं जानने के कारण पता नहीं है. अपन तो हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत से आगे कभी नहीं बढ़े) पहली बार सुना है,पर आपका ब्लॉग याद रहेगा.
ReplyDeleteहाँ, आप यह आशा कर सकती हैं कि कुछ दिनों में आपका नाम याद हो ही जाएगा.
आपको आपा कहूँ चलेगा !! :)
कमाल है आजतक आपको किसी ने वर्ड वेरिफिकेशन (Word Verification) के लिये नहीं टोका !!
ReplyDeleteआपका लेख पढ़कर हम और अन्य ब्लॉगर्स बार-बार तारीफ़ करना चाहेंगे पर ये वर्ड वेरिफिकेशन (Word Verification) बीच में दीवार बन जाता है.
आप यदि इसे कृपा करके हटा दें, तो हमारे लिए आपकी तारीफ़ करना आसान हो जायेगा.
इसके लिए आप अपने ब्लॉग के डैशबोर्ड (dashboard) में जाएँ, फ़िर settings, फ़िर comments, फ़िर { Show word verification for comments? } नीचे से तीसरा प्रश्न है ,
उसमें 'yes' पर tick है, उसे आप 'no' कर दें और नीचे का लाल बटन 'save settings' क्लिक कर दें. बस काम हो गया.
आप भी न, एकदम्मे स्मार्ट हो.
और भी खेल-तमाशे सीखें सिर्फ़ "हिन्दप्रभा" (Hindprabha) पर.
यदि फ़िर भी कोई समस्या हो तो यह लेख देखें -
वर्ड वेरिफिकेशन क्या है और कैसे हटायें ?
@ E-Guru Rajeev & Martin
ReplyDeleteधन्यवाद बहुत-बहुत
अगली किस्त का बेकरारी से इंतज़ार रहेगा.
ReplyDeletemazedaar post
ReplyDeleteपहली बार आपके ब्लाग का नाम भाई सहसपुरिया जी के प्रोफ़ाइल में देखा। आपका ब्लॉग बहुत पसंद आया , इसका लिंक मैं अपने ब्लॉग पर लगा रहा हूं। बराये मेहरबानी देखियेगा।
ReplyDeletemankiduniya.blogspot.com
ReplyDeleteबेहद ही रोचक लेखन शैली....एक बार पढ़ना शुरु करने के बाद पाठक अंत तक बंधा रहता है....आप में एक पठनीय लेखक बनने के सभी गुण विद्यमान है....बहुत शुभकामनाएं
ReplyDeleteबहुत-बहुत शुक्रिया अनिल यादव जी
ReplyDeleteसलाम अर्ज करता हू भाभी साहिबा..
ReplyDeleteशब्दों पर आपकी पकड़ कमाल की है..पाठक साहेब के उप्नायासो का दीवाना मै तो हू पर शुक्र है की हनीमून के समय बीवी पर जयादा ध्यान दिया..वरना इस समय हमारी बीवी भी आपके साथ बैठ कर कुछ ऐसा ही वाकया बयां कर रही होती..
बेहरतीन लेखन के लिए शुक्रिया..
कुलदीप
आपके शौहर,सुरेन्द्र मोहन पाठक और उनकी उपन्यासों में दिलचस्पी का वाक्या पढ़कर अच्छा लगा.मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही वाक्या हुआ जब मैं भी पहली बार अपनी मोहतरमा को घुमाने ले जा रहा था,फर्क सिर्फ इतना था की मेरे हाथों में नॉवेल की जगह कॉमिक्स थीं.हमारी श्रीमतीजी ने भी पहल-पहल बहुत हाय-तौबा मचाई हमारे कॉमिक्स के शौक को लेकर पर जब समझ गईं की इस 'सौत' से पीछा छूटना नामुमकिन हैं तो आहिस्ता-आहिस्ता उसको क़ुबूल कर लिया.
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