बचपन से मेरे मन में एक ही प्रश्न उठता रहा है क्या पूरी ज़िंदगी कोई भी स्त्री एक पल के लिए भी अपने लिए जीती है? जिसका जवाब मुझे आज तक नहीं मिला है.. शादी से पहले मैं जो कुछ भी करती थी या करने की इच्छा दिल में होती थी वो भाई-बहिन-मान-बाप के लिए वो भी मान-मर्यादा का विशेष ध्यान रखते हुए.. अगर कभी कोई अच्छा कार्य किया तो लोग कहते, अरे!! देखो फलां खां की बेटी ने कॉलिज टॉप किया है और मन था कि उसी से संतुष्ट हो जाता था क्यूंकि छुटपन से ही मस्तिष्क की धुलाई(ब्रेन-वाशिंग) इस तरह कर दी जाती है की क्यूँ क्या का सवाल ही नहीं उठता .. अब जब से शादी हुई तो सोच को और विस्तार मिला वो यूँ कि अब एक और उपाधि मिल चुकी है मैडम फ़ारूकी... ये कोई नहीं जानता कि आशकारा ख़ानम कहाँ गयी बेचारी !!!! अब मैडम फ़ारूकी को दिन भर यह सोचते गुज़र जाता है उनके किसी एक्ट से मि. फ़ारूकी नाराज़ न हो जाएँ या उनको किस तरह खुश रखा जाए...
इसके अतिरिक्त एक तमगा और प्राप्त हुआ जो कि हमारे परिचय का विशेष हिस्सा है.. फ़ारूकी सहा कहीं लेकर जाते हैं तो क्या बोलते है..."इनसे मिलिए मेरी वाइफ हैं.जवाब में सवाल होता है..जी अच्छा ! क्या करती हैं?" फ़ारूकी साहब मुस्कुराते हुए (सकुचाने की एक्टिंग करते हुए) जवाब देते हैं हाउस-वाइफ हैं. अब मैं कन्फ्यूज़ !!! अरे मैं किसकी पत्नी हूँ हाउस की या फ़ारूकी साहब की और आगे मेरा नाम भी पूछने की ख्वाहिश सामने वाला ज़ाहिर नहीं करता.. क्यूंकि उनकी नज़रों में परिचय पूर्ण हो चुका है हाउस-वाइफ शब्द-युग्म कानों में पड़ते ही उनका मज़ीद इंटरेस्ट जो ख़त्म हो गया.. क्यूंकि हाउस-वाइफ का शेड्यूल सभी को पता है. पूछे क्या और बताएं क्या? संभावित डिस्कशन तो वर्किंग लोगों के बीच ही हो सकता न... बाक़ी आइन्दाह
खुदा हाफ़िज़