Friday, July 9, 2010

बचपन

इसी समर वेकेशन में एक सुबह जब मैंने अपनी बच्ची को जगाया तो उसने उठने से साफ़ इनकार कर दिया और दो करवटें लेकर पेट के बल लेट गयी, बोली,'' मम्मा सोने दो न, खूब दिन की छुट्टी चल रही है न.'' मैं बोली,'' नहीं बेटा, उठो जल्दी से ब्रुश कर लो क्यूंकि तुम्हें अपना छुट्टियों का होमवर्क करना है.'' इस पर भी जब वह नहीं उठी तो उसको मैंने ज़बरन उठाया और टॉयलेट में बिठा दिया. वह बोली ,'' नहीं आ रही.'' मैंने डांटा,''ट्राई करो.'' काफी देर बैठी वह रोती-हुमुकती रही. आखिर मैंने उसे उठाया, बाथरूम ले जाकर ब्रश थमा दिया. उसने रोते हुए ब्रश करना शुरू किया. नहला-धुलाकर उसके आगे नोटबुक-पेन्सिल रखकर कहा,'' बेटा वन से हंड्रेड तक नम्बर्स लिखो, तब तक मैं तुम्हारे लिए दूध लाती हूँ.
जब मैं दूध लेकर लौटी तो मेरी बिटिया ने मुझ पे सवाल दाग़ा,'' मम्मा! जब आप मेरी तरह छोटी थीं तो क्या नानी भी आपको इत्ता सारा होमवर्क कराती थीं?'' मैं निरुत्तर हो गयी,बोली,''चुपचाप काम करो!'' परन्तु मस्तिष्क में बहुत से सवालात,ख्यालात कुलबुलाने लगे----आखिर इतने छोटों बच्चों से (बिटिया यू.के.जी. में है) हम इतनी जल्दी इनका बचपन क्यूँ छीन रहें हैं. किचन के पेंडिंग काम निबटाते हुए गुड़िया का सवाल हथौड़े की तरह दिमाग में चोट कर रहा था. अपने बचपन की तुलना अपनी बिटिया के बचपन से करने लगी...
हमारे घर के आंगन में बहुत बड़ा जामुन का पेड़ था जिस पर अब्बूजी ने झूला डाल दिया था. सुबह उठते ही झूले पर बहुत देर तक झूलते रहना...उसके बाद नानी के घर जाना... आंगन में लगे अमरुद और बेरी के पेड़.. पेड़ पर से अमरुद और बेर चुनना.. दागों के लगने के डर के बिना उनको जेबों में भर लेना..नीचे से नानी आवाज़ लगाती.. कोसनों(Curse) में लिपटी दुआएँ देतीं.''नसीब-ए-बर(Fortunate)! तेरा नास न हो...नीचे उतर आ ''
अम्मी की आवाज़ कानों में पड़ती, ''स्कूल नहीं जाना क्या? चलो ठीक है. आज खेत में पनीर(धान की रोंपाई) लग रहा है. वहां जाकर अब्बूजी को रोटी दे आना.''

मुझे कुछ याद आ गया,''नहीं अम्मी! आज तो मुझे स्कूल ज़रूर जाना पड़ेगा, क्यूंकि मेरा इमला(श्रुतिलेख) बोलने का नम्बर है और स्कूल की चाबी भी मेरे पास है.''
---''चाबी तूने क्यूँ ली?''
---''मास्टर साहब ने यह रूल बना दिया है कि जो बच्चा सुबह स्कूल खोलकर झाड़ू लगाएगा वही 'इमला' बोलेगा.''
--''ऐसा क्यूँ?''
--''सब बच्चे इमला लिखने से बचना चाहते है. हर ग़लती पर मास्साब एक डंडा मारते हैं..''
--''अच्छा ठीक है. स्कूल से जल्दी आ जाना और बहनजी (लेडी टीचर) से पीले और काले रंग का स्वेटर, वह जो कल स्कूल में बुन रहीं थीं, ले आना तेरे भाई के स्वेटर में वही डिज़ाइन डालना है..''
--''ठीक है.'' कहते हुए जल्दी से बची हुई घी लगी रोटी चाय से हलक़ में निगली और बस्ता कंधे पर डाल लिया.
हमारे स्कूल के रास्ते में ही खालाजान का घर पड़ता था . मैंने अपनी कज़िन को आवाज़ लगाईं,''बेबी! आ रही है क्या?'' क्यूंकि उन दिनों स्कूल जाना आजकल की तरह प्राथमिकता में कभी नहीं था एक ऑप्शनल काम था . बेबी मेरी ही कक्षा में थी. जैसे ही वह बाहर निकली, मैंने अपना बस्ता भी उसको पकड़ा दिया, उसने ऐतराज़ किया..
--''अरे तू मोटी-तगड़ी है न और फिर मैं तेरी इमले में भी मदद करूंगी?'' सेहतमंद होने पर तो नहीं लेकिन दूसरे बिंदु पर समझौता हो गया. मगर वह चुप-चुप थी. पूछने पर पता चला कि उसके बड़े भाई नहीं चाहते थे कि लड़कियों को पढ़ाने की कोई ज़रुरत है.उनके विचार से वे स्कूल जाने से बिगड़ जाती हैं..
मैंने सांत्वना दी,'' खालाजान से तेरी सिफारिश करूंगी.''
--''भाईसाहब बहुत मारेंगे. मेरे स्कूल जाने से घर के काम का नुकसान भी होता है न.''
स्कूल पहुंचकर ताला खोला, मिलकर कमरों में झाड़ू लगाईं. कुल मिलाकर दो ही तो कमरे थे स्कूल की इमारत में. फर्श झाड़कर लाइन में बिछाए, मास्साब की कुर्सी-मेज़ भली-भांति साफ़ की और श्यामपट्ट को भी साफ़ कर तिथि डाल दी. बेबी ने ज़ोरसे घंटी बजाकर स्कूल के खुलने का ऐलान किया.
शनै-शनै सभी बच्चे आकर अपनी निर्धारित जगहों पर बैठ गए. मेरी कक्षा में कुल 60 विद्यार्थी थे. लेकिन औसतन रोज़ पच्चीस से ज़्यादा नहीं आ पाते थे क्यूंकि ज़्यादातर किसान- मज़दूर परिवारों से थे जो कि जीवन-यापन में अपने माँ-बाप की सहायता करते थे... फसल-कटाई के दिनों कटाई करवाते, बाग़ों की बहार आने पर दिन भर तोते उड़ाते. इन दिनों धान की रोंपाई चल रही थी. आज की नफरी 35 थी. इमला बोलने के टास्क को लेकर मैं बहुत उत्साहित थी.
तूफ़ान के आने पूर्व सन्नाटा छाता है. परन्तु मास्साब के आने से पहले शोर का तूफ़ान बरपा था. उनके आने पर शान्ति छा गयी व शीशम का स्वस्थ/मोटा डंडा मेज़ पर पड़ते ही शांति नीरवता में परिवर्तित हो गयी.
मास्साब टिपिकल देहाती आदमी थे. कनिष्क महान के वंशवृक्ष से अपनी वंशबेल मिलती बताते थे. कुर्सी को उपकृत करके कंधे पर पड़े गमछे से अपना विस्तृत और झुर्रीदार ललाट पौंछा, दीवार की ओर आदेश उछाला,'' अरे कोई पानी तो पिलाओ रे!''
गंगा' तत्परता से उठकर ग्लास धोकर पानी ले आयी. ग्लास को थामते ही मास्साब की दृष्टि गंगा पर पडी. पानी को नज़दीकी उपलब्ध रिक्त स्थान पर फ़ेंक कर गरजते हुए राजीव को ग्लास मांजकर फिर से पानी लाने का निर्देश दिया. उस वक़्त तो नहीं लेकिन कुछ सालों बाद मैं इस बात को समझ पाई थी कि ‘गंगा’ और 'धीरे' दोनों बहनें समाज की उस जाति से सम्बन्ध रखती थी जिसके आदिपुरुष को 'रामायण' का रचियता माना जाता है जबकि हमारे मास्साब वीर-महान' 'गुर्जर' थे. मगर विडंबना देखिये कि आज-कल यह 'वीर और महान' जाति अनुसूचित जाति से एक क़दम और आगे जाकर अनुसूचित जनजातियों में सम्मिलित होने के लिए आंदोलनरत है... खैर.. परिवर्तन और फैशन बेंज़ीन के सूत्र की तरह होते हैं..
मास्टर साहब ने पूरे इत्मीनान से, उन दिनों सिलेबस और वक़्त में सामंजस्य की कोई शर्त नहीं थी, श्यामपट्ट पर गणित का एक प्रश्न उतारा. मुझे छोड़कर कोई बच्चा सवाल को हल नहीं कर पाया रीज़न बिहाइंड दिस..पूरे गाँव में मेरी ही मां दसवीं तक पढी हुई थीं जो मुझको घर पर पढ़ा दिया करती थीं (बावजूद इसके 'घर की बीवी' ही थीं वजह आगे ब्यान करूंगी). मास्साब बहुत खुश हुए,'' आशकारा! आज से तुम क्लास की मानिटर हो. मेरे पीछे सब बच्चे इसकी बात मानोगे." यह सुन 'इरफ़ान' जो एक दबंग पठान बच्चा था बोला,'' मास्साब! हम एक लडकी को अपना मानीटर नहीं बनायेंगे. मानिटर मैं ही रहूँगा."
इरफ़ान में इस उम्र में ही ‘पुरुष-प्रधान मानसिकता’ के प्रस्फुटन से मास्साब कुछ विचलित हो गए. इसके इलावा इरफ़ान सेहत और उम्र दोनों में मुझसे इक्कीस था मगर ग्राम-प्रधान का पुत्र होना सबसे बड़ा कारण था कि मास्साब ने, जोकि प्रधानजी से रौब खाते थे, इस समस्या का तुरंत विशुद्ध राजनीतिक निदान ढूंढ ही लिया, ''अच्छा ठीक है. लड़कियों की मानिटर आशकारा होगी व इरफ़ान तुम लड़कों के मानिटर रहोगे.'' इसका तुरंत प्रभाव इमला बोलने के समय ही दिख पड़ा, जब इरफ़ान ने मेरे हाथ से किताब छीनकर डांटा,''जाओ सिर्फ लड़कियों को इमला बोलो!'' मास्साब से शिकायत करने पर वह, इरफ़ान से बड़ी मुश्किल से सिर्फ आज के लिए मुझे इमला बोलने का अधिकार दिला पाए चूँकि स्कूल मैंने खोला और साफ़ किया था.
साढ़े बारह बजे छुट्टी होने पर घर पहुँची, अम्मी को इन्तिज़ार करते पाया,''जल्दी नहीं आ सकती थी.कितनी देर हो गयी.'' देर तो बिलकुल नहीं हुई थी. अम्मी बड़ा सा नाश्तेदान कपड़े से बाँध कर मेरे सर पर रख बोली,'' चल तेरा खाना भी साथ बाँध दिया है. वहीं खेत पर खालियो.''
खेत पर पहुँची, अब्बूजी रुष्ट स्वर में बोले, ''इतनी देर कहाँ लगाईं?''
--स्कूल से अभी आयी हूँ!''
---''और पढ़ाओ लौंडियों को!'' मुख्तार चच्चा की व्यंग्य-भरी आवाज़ सुनाई दी,''अभी तो रोटी मिल रही है. कल क्या पता बंद हो जाए.''
--''कोई बात नहीं भूखे रह लेंगे'' अब्बूजी ने जवाब में कहा और खाना खाने लगे. मेरी आँखों में आंसू देख निवाला छोड़ दिया, बोले,'' क्यूँ रो रही है?''
---''भूख लगी है.'' इस पर अब्बूजी ने गले लगाकर मुझे अपने साथ खाना खिलाया.
जिस खेत में पनीर लग रहा था वह ‘बंगरिया’ कहलाता था. जिसमे घुटनों-घुटनों तक भरे पानी में 'दलित' महिलाएं अपने पेटीकोट चढ़ाए पनीर लगा रही थीं. उनके बच्चे वहीं एक दूसरे पर पानी और कीचड़ उछाल कर लौट-पोट हो रहे थे. बारिश का कई दिन इन्तिज़ार करने के बाद, पानी दूर फूफा के रहट से लिया जा रहा था. अब्बूजी ने घड़िया उठा कर कहा, ''जा रहट से साफ़ पानी लिया.'' मैं पानी के 'बरह'(नाली) के किनारे-किनारे पानी जो कि घास पर शीशे की तरह चमक कर बह रहा था, को देखती जा रही थी. मुझे महसूस हुआ कि जैसे पानी ठहर गया हो और मैं चल रही हूँ. रहट पर फूफा के दोनों बैलों की आँखों पर पट्टी बंधी हुई थी, जो जुए में रहट के बीम से जुड़ कर रहट खींच रहे थे. लोहे की छोटी-छोटी बाल्टियों से पानी नाली में पलट रहा था. मैंने घड़िया पानी से भर कर एक तरफ रखी और नाली से मुंह लगाकर खूब सारा पानी पिया, मुंह नीचे होने के कारण फन्दा लग गया. बड़ी ज़ोरकी खांसी उठी... दूर परे खेत में बगुले चुग रहे थे...

उपरोक्त घटना के दो महीने के बाद....
जुमे का दिन था. आज छुट्टी जल्दी हो जाती थी. इस लिए अम्मी ने स्कूल ही नहीं भेजा था. मैं छोटे भाई को झूला झुला रही थी. अम्मी सुबह से ही परेशान थीं. गुज़री रात ओलों के साथ ज़ोरों से बारिश हुई थी. जिसने मूंजी(धान) को ज़मींदोज़ कर दिया था. उदासी और अफ़सोस के सबब आज हमारे घर खाना नहीं बना था. मैंने पूछा, ''क्या हो गया?''.... ''मुझ से क्या पूछती है?, अपने अब्बू से पूछो?" अब्बूजी नाराज़ होकर,'' बच्चों के सामने ऐसी बातें मत करो!,'' कहते हुए बाहर चौपाल चले गए. लेकिन मैं अम्मी से बज़िद होकर पूछने लगी, '' क्या बात है?'' अम्मी मुझे बहुत ध्यान से देखने लगीं, बोलीं,'' क्या तू इतनी बड़ी हो गयी है!!! खैर.... सुन तेरी पैदाइश से पहले की बात है. बी.डी.ओ. साहब आये थे हमारे घर, तेरे दादाजी से कहा कि सरकार गाँव में लड़कियों का स्कूल खोल रही है, अगर आपकी मर्ज़ी हो तो आपकी बहू मास्टरनी लग सकती है. यह सुनकर तेरे दादाजी बड़े रुष्ट और नाराज़ हुए व बी.डी.ओ. साहब से बोले जब हमारे घर की बहू-बेटियां घर के बाहर ही क़दम नहीं रखतीं तो हम क्या उनसे नौकरी करवाकर कमाई खाएंगे. मैंने तेरे अब्बूजी से बहुत मनुहार की कि अपने पिता से बात करें लेकिन वह हिम्मत न कर पाए और मेरी एक न चली. काश जब मुझे वह अवसर मिल जाता तो आज खेती के इस नास के वक़्त कुछ मदद तो कर पाती. '' उन्होंने एक लम्बी आह भर कर बात को विराम दिया.
भाग्य की बात है, उन्हें ‘घर की बीवी’ बनना ही बदा था..
बाक़ी आइन्दा!!
खुदा हाफ़िज़.



Trouble-shooting
नीरवता= soundlessness,quietness
कनिष्क महान के वंशवृक्ष से अपनी वंशबेल मिलती = उनका जातिसूचक नाम 'कसाना' था जिसको वह कनिष्क महान के कुषाण-वंश से अपभ्रंशित मानते थे.
उपकृत= obliged
बेंज़ीन के सूत्र की='बेंजीन' गैस की रासायनिक संरचना गोल होती है.
सामंजस्य= hormonise
प्रस्फुटन= to bloom
विशुद्ध राजनीतिक निदान purely political solution

17 comments:

  1. abbuji or ammi ka aapko padhane ka faisla itni paresani or negative mahoul ke bawzood ek acchi baat hai, lakin mukhtar chaccha jaise log aaj bhee hain. Aapka lekhan bebaak hai meri or Nisha ki moral support aapke saath hai. Likhte rehna..... Allah Hafiz.

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  2. Dear Ashkara jee aapki lekhni kaafi achi lagi. Keep it up. God Bless!

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  3. Nice to read your stories. This talent of yours was unknown to many of us, so it's good that you have uncovered it..Your way of telling the story is very rhythmic and imagination is quite qualitative...In reference to this story I would say that competition and expectations have increased by leaps and bounds, especially in the hearts of people in big cities like Delhi...So, we let out gen-next prepare for the cut-throat competition and sky-high expectations from a very early age....Therefore, the time of a child, which would otherwise have been spent to live life to the fullest, spends in turning the pages of books...The options are limited in our country and pressure of society is immense, and all of us want our children to be successful in their life. So we can't stop our child to let slip their childhood away from their hands and just to restrict to studies...In contrast, in the villages and small towns, people’s expectations are limited and their view towards the life refers to the quite old-styled one in which one used to live life to the fullest, without the burden of the society...Education in those areas may not be up to the mark, facilities might not be matching the living standards in cities and people might quite be ignorant about the development around the world, but they live life in a way which a children in a posh area of a metropolitan can only dream of...Life in the villages and small towns is still peaceful and people rejoice life. But the moment expectations will engulf their minds and capitalism entered to their ideology, the happiness will dissipate gradually and a child of a labourer in a hamlet won't be as happy as he is at the moment...Hope a situation of that sort will never arise, and in contrast, after reaching the zenith of materialism, the people in the cities will lead to spiritualism...That will be an ideal state where people will opt only for happiness, irrespective of their social status. I finish my comment with two lines
    Do aur do ka jod hamasha, char kaha hota hai
    Soch samajhne walo ko, thodi si nadaani de maula

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  4. @ Shaghil
    Dear Shaghil. These are not to be said stories simply. As I said in the introductory note, these are my comments on daily affiars which I observed. I am posting full nazm of Fazli saheb for viwers.
    Thank you for such a detailed and knowledgeworthy comment.
    गरज-बरस

    गरज-बरस प्यासी धरती पर
    फिर पानी दे मौला
    चिड़ियों को दाने, बच्चों को
    गुड़धानी दे मौला

    दो और दो का जोड़ हमेशा
    चार कहाँ होता है
    सोच-समझवालों को थोड़ी
    नादानी दे मौला

    फिर रौशन कर ज़हर का प्याला
    चमका नयी सलीबें
    झूठों की दुनिया में सच को
    ताबानी दे मौला

    फिर मूरत से बाहर आकर
    चारों ओर बिखर जा
    फिर मन्दिर को को‌ई मीरा
    दीवानी दे मौला

    तेरे होते को‌ई किसी की
    जान का दुश्मन क्यों हो
    जीनेवालों को मरने की
    आसानी दे मौला

    - निदा फाज़ली

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  5. @ anis, Romee_win
    Thank You for comments.

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  6. ये ज़ेह्नीयत तो आज भी हमारे माहोल में है , लेकिन शुक्र है लोग अब समझ रहे हैं.
    माशाल्लाह लिखने का अंदाज़ काफ़ी अच्छा है. सादी ज़बान में कही गयी बात दिल पर असर करती हैं.

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  7. Adab

    Ashkara ji aapke anubhav aur unko kehne ka dhang seedhe dil par chot karta hai. gaon ki ek dum sahi tasweer, caste feeling, ladkiyon se bhed bhav, aur ghar ki biwi ka dard chahe gaon mein chahe shahar mein. dua yahi hai ki aap likhti rahein aur padhne walon par kuch asar ho aameen

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  8. @ Ashish
    आशीषजी बहुत बहुत धन्यवाद

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  9. काफी असरदार अभिव्यक्ति.. देर आईं दुरुस्त आईं ...
    चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है... हिंदी ब्लागिंग को आप नई ऊंचाई तक पहुंचाएं, यही कामना है....
    इंटरनेट के जरिए अतिरिक्त आमदनी के इच्छुक ब्लागर यहां पधार सकते हैं- http://gharkibaaten.blogspot.com

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  10. आशकारा बहन,
    आपकी शीरीं ज़ुबान और लफ्ज़ों की बेलौस अदायगी देखकर पहली लाईन से आख़िरी तक खुद के साँस लेने की जगह तलाशता रहा और लफ्ज़े आख़िर तक पहुँचकर तास्सुरात के लिए अपनी ज़ुबान भी भूल गया... इतनी सादा बयानी और इतने सारे मौजू पर एक साथ इतना ख़ूबसूरत बयान… ये गुफ्तगू तो घर की बीवी की कम, बड़ी बी की ज़्यादा लगी… लेकिन हमारी नज़र भी एक भूल पर टिक गई... केमिस्ट्री रग़ों में वाबस्ता है लिहाजा इतना तो कह ही सकता हूँ कि बेंज़ीन की बनावट गोल नहीं हेक्सागोनल होती है... लेकिन ये कोई इतना अहम मसला नहीं... बाकी अब तो लगा रहेगा आना जाना.. अल्लाह आपके कलम को बरकत दे..आमीन!!
    सलिल

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  11. इस नए सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्‍लॉग जगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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  12. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

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  13. @ वर्माजी , संगीताजी और अजयजी
    टिप्पणी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!

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  14. अपने इस पोस्ट की चर्चा जनोक्ति.कॉम के स्तम्भ "ब्लॉग-हलचल" में जरुर देखें !

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  15. @ चला बिहारी ब्लॉगर बनने
    बेंजीन की संरचना पर काम कर रहे फ्रेडरिक केकुले को सपने में एक सांप दिखा था जो अपनी पूंछ अपने मुंह में दबाए हुए था मतलब गोल जैसी आकृति हुई न. बाकी षटकोणीय आकृति बाद में व्याख्यित हुई थी. वैसे आपकी विद्वता को सलाम अर्ज़.

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  16. @ जयराम “विप्लव”
    Many many thanks.

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  17. अच्छा वर्णन है.... घर की बीबी से एसा लगता है किसी की बाहर और कोई बीबी भी है..... गृहिणी .

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